मेरी दादी अक्सर एक कहावत कहा करती थीं- मां पर पूत, पिता पर घोड़ा.. बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा…
बहुत दिनों तक मैं इस बात से इंकार करता रहा, लेकिन जैसे-जैसे घर का माहौल समझ आता गया, मैं भी इस सच के क़रीब आता गया. बच्चे हूबहू ना सही, काफ़ी कुछ अपने मां-पिता जैसे होते हैं, उनकी पसंद-नापसंद, उनका काम करने का ढंग या फिर उनकी सनक!
सनक… यही शब्द तो पापा हमेशा यूज़ करते थे मां की सफ़ाई को लेकर! वो मां के नियमों के आगे हमेशा असहज रहे. हमेशा उन दोनों में बहस होती रही, “आपने फिर पुराना अख़बार ऐसे ही गुड़मुड़ा के रख दिया.” मां गुस्सातीं तो पापा टाल जाते.
“अरे, अभी हम पढ़ रहे हैं.”
मां घूरते हुए पिछला हिसाब खोलने लगतीं, “मंगलवार का अख़बार बृहस्पतिवार तक नहीं हटता. कई दिन एक ही अख़बार पढ़ते हो आप?”
फिर बात बढ़ती, सालों की घटनाएं दुहराई जातीं, जहां मां उनकी घर गंदा रखने की आदत पर सुनाती रहतीं, वहीं पापा शांति से एक ही बात कहते, “ये सफ़ाई नहीं, सनक है तुम्हारी… डॉक्टर को दिखाओ, नहीं तो हमारे बच्चे भी ऐसे ही हो जाएंगे.”
इस तरह के एपिसोड हमारे यहां लगभग हर दिन होते थे. फिर धीरे-धीरे कम होने लगे. अरे नहीं-नहीं, पापा ने सफ़ाई नहीं सीखी, ना मां ने टोकना छोड़ा. वो तो पापा का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया और हम इस मनोरंजन से वंचित हो गए. पापा सही थे या मां, ये हम भाई-बहन नहीं जानते थे, हम बस ये जानते थे कि पापा की वो भविष्यवाणी एकदम सही थी.
ज़्यादातर समय मां के साथ बिताते हुए, हम भी मां जैसे होते गए, सफाई पसंद. सब कुछ व्यवस्थित, अपनी जगह रखनेवाले…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
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