कहानी- आज भी कोई चोट लगे तो… 3 (Story Series- Aaj Bhi Koi Chot Lage To… 3)

“सॉरी मां!… मां… पलक… ज़िंदगी… का दिया… सख़्त दंड… तुम कहती थीं…” 

मां ने मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया. हिचकियों में डूबे अपने शब्द मुझे ख़ुद नहीं समझ आ रहे थे, पर मां समझ गईं. एक मां ने दूसरी मां के आंसू झट अपनी पलकों में ले लिए. उनकी आंखें झरने लगीं. मुंह से एक आह के साथ ये शब्द निकले, “तू चिंता मत कर बेटा, बस जल्दी से ठीक हो जा. मैं हूं न! सब संभाल लूंगी. तुझे भी और तेरी बिगड़ैल को भी. मुश्किल है, व़क्त लगेगा, पर सब ठीक हो जाएगा. तू बस धीरज रख.” मां मुझे लाड़ किए जा रही थीं और मुझे लग रहा था कि मैं अपने बचपन में पहुंच गई हूं.

 मां ने कभी हमारा ख़्याल नहीं रखा, क्योंकि वो हममें अपना ख़्याल ख़ुद रखने की आदत डाल रही थीं. पढ़ाई के लिए मां ने कभी किसी बच्चे की हॉबी को करियर में बदलने के लिए जल्दी नहीं मचाई, क्योंकि वो रुझान के जुनून में बदलने की प्रतीक्षा कर रही होती थीं, जो शिक्षा को ग्राह्य बनाने के लिए सबसे ज़रूरी कदम था. वो कभी किताबें लेकर हमारे पीछे नहीं दौड़ीं, क्योंकि वो हम में स्वाध्याय की इच्छाशक्ति जगाना चाहती थीं. समझाना चाहती थीं कि अध्ययन हमारे ख़ुद के जीवन को उच्चतर बनाने का साधन है, अभिभावकों पर एहसान नहीं. किसी चीज़ के लिए एक बार मना करने के बाद पिघली नहीं, क्योंकि वो फ़रमाइश के ज़िद और ज़िद के लत बन जाने के कारण को जानती थीं. वो समय-समय पर दंड देकर, अपनी बेरुखी से, अपनी महत्ता का एहसास कराती रहीं. अपने अहं के कारण नहीं, बल्कि हमारे भीतर कृतज्ञता और संवेदना जैसे नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए.

और मैंने क्या किया? मैंने ही तो जाने-अनजाने पलक के नन्हें दिमाग़ में ये डाला था कि मां उसका ख़्याल रखने के लिए बनी है और वो केवल अपनी ज़िंदगी ख़ुशी से जीने के लिए. पलक छोटी थी, तो अक्सर मेरे चेहरे पर थकान देखकर कहती थी, “लाओ मम्मा, मैं ये काम करा दूं.” तब मैं निहाल होकर कहती, “नहीं, तू बस पढ़ाई और अपने हॉबी कोर्सेस कर. तू बस नाम कमाने के लिए बनी है. इन सब कामों के लिए मम्मा है न! तुम्हारा अपना रोबोट.” मैं उसकी पढ़ाई की मेज़ पर दूध, फल, नाश्ता पहुंचाती. उसके कपड़े सहेजती, उसका कमरा व्यवस्थित रखती. उसके अंक अच्छे-से-अच्छे आएं, इसके लिए उससे ज़्यादा मेहनत मैं करती. उसके लिए अभ्यास-कार्य तैयार करती, ज़रूरी जानकारी नेट से अपलोड करती, प्रोजेक्ट बनाती. उसकी ट्रॉफियां ड्रॉइंगरूम में सजाते मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता और मैं रोबोट की तरह काम करती जाती.

उस दिन अस्पताल से सारे टेस्ट कराकर आई थी. शरीर के साथ मन से भी बहुत थकी और चिंतित थी. स्कूल से आकर बस्ता फेंककर पलक खाने की मेज़ पर बैठी, तो खिचड़ी देखकर बिदक उठी थी, “आज खा ले बेटा, मैं बहुत थक गई थी. दरअसल…” मेरी बात काटकर भन्ना उठी थी वो, “इतना थक गईं थीं कि ढंग का खाना भी नहीं बनाया. मेरा प्रोजेक्ट बनाने को तो पहले ही मना कर चुकी हो. करती क्या रहती हो दिनभर?” मैं अवाक्! मन हुआ एक तमाचा रसीद करूं, पर क्यों नहीं किया, सोचकर आज भी पछताती हूं. उस दिन शादी के बाद पहली बार फोन पर मम्मी से बात करके रोई थी, “याद है मम्मी, सब हमें देखकर कहा करते थे कि बेटियां होती ही हैं संवेदनशील, जुझारू और कृतज्ञ, पर पलक… पलक तो लड़कों की तरह…”

तब मम्मी ने प्यार से समझाया था, “लड़कियां या लड़के कृतज्ञ या नालायक होते नहीं हैं. हमारी परवरिश उनमें संवेदनशीलता और कृतज्ञता या आलसी और स्वार्थी सोच विकसित करती है. जो ग़लती तूने की है, वही पूरा समाज कर रहा है. तरीक़ा लड़कों की परवरिश का बदलना चाहिए था और बदल दिया लड़कियों का. होना ये चाहिए था कि बचपन से ही थोड़ी मात्रा में दंड, बाधाएं, प्रवचन और ज़िम्मेदारियां लड़कों की परवरिश का भी हिस्सा बनतीं, ताकि उनमें भी धैर्य, सहनशीलता, परिवार और समाज के प्रति दायित्व भावना का विकास होता. लड़कों के बहकने का भी थोड़ा डर मां-बाप को होता,  तो शायद माहौल थोड़ा और सुरक्षित होता और हम अपनी बेटियों को भी थोड़ी और आज़ादी दे पाते. और प्यार! बच्चों को असीमित प्यार न करना, तो हमारे बस में है ही नहीं. हां, उसे जताना बस खाने में नमक जितना होना चाहिए, न रत्तीभर कम, न ज़्यादा. कम हो जाए, तो ऊपर से मिलाया भी जा सकता है, पर ज़्यादा हो जाए, तो पकवान का खाने योग्य न रहना निश्‍चित है.”

“नमस्ते-नमस्ते मांजी, आपके कहने से मैं रास्ते से लौट तो आया, पर चिंता हो रही थी आपकी. रास्ते में कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई?” देवेश का उत्साहित स्वर सुनकर मैं अतीत से लौटी.

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“नहीं दामादजी, टैक्सी की ऐप मोबाइल में है और पांच नातियों की नानी हूं मैं. क्या सोचते हैं उन्होंने मुझे इतना भी नहीं सिखाया होगा? स्टेशन से अकेले घर आना ऐसा कौन-सा कठिन काम है, जो मैं इस उम्र में नहीं सीख सकती.” अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था मुझे. मां आई हैं? वो भी अकेले? मां अधीर-सी सीधे मेरे कमरे में आ गईं और आते ही शुरू हो गईं, “मुझे पहले क्यों नहीं बताया, मेरा बच्चा? हाय कितनी कमज़ोर हो गई है. नालायक, तू नहीं सुधरेगी. मां से छिपाती है? क्यों ख़ुद मैनेज करती रही इतने दिन?”

“सॉरी मां!… मां… पलक… ज़िंदगी… का दिया… सख़्त दंड… तुम कहती थीं…”

मां ने मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया. हिचकियों में डूबे अपने शब्द मुझे ख़ुद नहीं समझ आ रहे थे, पर मां समझ गईं. एक मां ने दूसरी मां के आंसू झट अपनी पलकों में ले लिए. उनकी आंखें झरने लगीं. मुंह से एक आह के साथ ये शब्द निकले, “तू चिंता मत कर बेटा, बस जल्दी से ठीक हो जा. मैं हूं न! सब संभाल लूंगी. तुझे भी और तेरी बिगड़ैल को भी. मुश्किल है, व़क्त लगेगा, पर सब ठीक हो जाएगा. तू बस धीरज रख.” मां मुझे लाड़ किए जा रही थीं और मुझे लग रहा था कि मैं अपने बचपन में पहुंच गई हूं. जब केवल दिल से ‘सॉरी’ बोल देने पर भरपूर लाड़ मिल जाता था, मगर इस जुमले के साथ कि तय दंड तो कम नहीं होगा.

 

   भावना प्रकाश

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Usha Gupta

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