कहानी- आए तुम याद मुझे 1 (Story Series- Aaye Tum Yaad Mujhe 1)

सच कहूं, तो पहली मुलाक़ात में ही अच्छी लगी. सौंदर्य से बढ़कर बौद्धिक क्षमता से परिपूर्ण आत्मविश्‍वास से उसका व्यक्तित्व निखर आया था. अपने नाम के अनुरूप वो पहली दृष्टि में ही किसी को भी आकृष्ट कर लेने की क्षमता रखती थी. मैं पिछले साल उप-महाप्रबंधक के पद से रिटायर हुआ था और अकेलेपन से त्रस्त रहता था. अकेलापन भी ऐसा, जो जीवनभर का दंश था.

सोच रहा हूं तन और मन दोनों की अपनी आवश्यकताएं, आकांक्षाएं और मांग होती हैं. तन को तो समझाया और बहलाया जा सकता है या मांग पूरी की जा सकती है, लेकिन मन? मन हमें कितना विवश कर देता है, अब अनुभव हुआ. मन को बहलाना-भरमाना आसान नहीं होता. आज मैं अपने ही मन से हार रहा हूं.

सुबह से ही मन कुछ बेचैन था. आज सुबह से ही बारिश हो रही है. वैसे बारिश में भीगना किसे पसंद नहीं… और मैं? मैं तो बारिश में भीगने का दीवाना हूं, पर हल्की ठंड की शुरुआत हो चुकी है और इस उम्र में बेमौसम की बारिश से बचता हूं, इसलिए मॉर्निंग वॉक के लिए नहीं जा सका. नियमित दिनचर्या में व्यवधान आने पर खालीपन का एहसास होता ही है. तभी मोबाइल पर मैसेज की टोन से ध्यान भंग हुआ. उर्वशी ने ‘हाय’ लिखकर स्माइली भेजा है. मैंने भी दूसरे स्माइली के साथ ‘हैलो’ लिख दिया.

“क्या कर रहे हैं?”

“कुछ नहीं. सुबह से बोर हो रहा हूं.”

“कॉफी पीएंगे?”

“अरे वाह! इस मौसम में तुम्हारे हाथ की कॉफी… कोई पूछने की बात है!”

“बस, दस मिनट में बन जाएगी. आइए.”

उर्वशी और मेरा रिश्ता पुराना नहीं है, बल्कि इसे रिश्ता कहा भी जा सकता है क्या? जान-पहचान कहा जाए या पड़ोसी से औपचारिक-सा संबंध? वैसे रिश्ता होता क्या है? इसी कश्मकश में मैं कब से उलझ-सा गया हूं.

दो-तीन महीने पुरानी बात होगी.

यह भी पढ़े: इमोशनल अत्याचार: पुरुष भी हैं इसके शिकार (#MenToo Movement: Men’s Rights Activism In India)

सुबह-सुबह बगल की बालकनी में उसको देखा. उस बारह मंज़िला अपार्टमेंट में फ्लैट्स की बालकनी अगल-बगल में थीं. वो फ्लैट कई महीने से खाली पड़ा था, इसलिए सुखद-सा आश्‍चर्य हुआ. वो बेतकल्लुफ़ी से हाथ हिलाते हुए, ‘हाय’ बोली, तो मैंने भी हाथ हिला दिया. लगभग पैंतीस वर्ष की आयु, ख़ूबसूरती से संवारे बाल, गोरा रंग, तीखे नैन-नक्श, संतुलित देहयष्टि, काले रंग का लोअर, काली स्लीवलेस टी-शर्ट और गले में गुलाबी टॉवल डाले पसीने से तरबतर वो शायद एक्सरसाइज़ करके फ्रेश हवा के लिए बालकनी में आई थी.

“हाय, मेरा नाम उर्वशी है.” वो मुस्कुराई.

“हैलो, मैं अनिरुद्ध.” मेरे चेहरे पर भी मुस्कान आ गई.

“कितना अच्छा लग रहा है, बालकनी में, नहीं?” वो मुझसे अधिक, अपने से बोल रही थी, फिर मुझसे मुख़ातिब होकर बोली, “चलती हूं, फिर मिलेंगे. बाय.”

सच कहूं, तो पहली मुलाक़ात में ही अच्छी लगी. सौंदर्य से बढ़कर बौद्धिक क्षमता से परिपूर्ण आत्मविश्‍वास से उसका व्यक्तित्व निखर आया था. अपने नाम के अनुरूप वो पहली दृष्टि में ही किसी को भी आकृष्ट कर लेने की क्षमता रखती थी.

मैं पिछले साल उप-महाप्रबंधक के पद से रिटायर हुआ था और अकेलेपन से त्रस्त रहता था. अकेलापन भी ऐसा, जो जीवनभर का दंश था. रिटायर होने के कुछ ही महीने पहले पत्नी निशा हमेशा के लिए साथ छोड़ गई थी. कहां तो दोनों प्लान बनाते थे कि रिटायरमेंट के बाद ये करेंगे, वो करेंगे, कहां-कहां घूमने जाएंगे, पर ऊपरवाले के हाथों सब विवश हैं.

दोनों बच्चे अपने-अपने परिवार में मस्त और व्यस्त रहते हैं. ऐसा नहीं है कि उन्होंने मेरा अकेलापन बांटने का प्रयास नहीं किया. दोनों के यहां कई महीने रह चुका था, पर बेटे-बेटी के घर कुछ समय तो रहा जा सकता है, लेकिन पूरा जीवन नहीं काटा जा सकता. जब आपका साथी ही न हो, तो जीवन अकेले काटना कितना कठिन हो जाता है. विशेषकर, वृद्धावस्था में अकेलापन एक विडंबना है.

पति-पत्नी का रिश्ता इसी समय के लिए होता है, जब हम दैहिक अनुभूतियों, प्यास, आकांक्षाओं, एहसास आदि से ऊपर उठकर आत्मा के स्तर पर एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं, पर नियति को बदलना हमारे हाथ में तो नहीं होता.

साहित्यिक अभिरुचि के कारण मैं शहर की साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ गया और विभिन्न कार्यक्रमों-गोष्ठियों में व्यस्त रहने लगा. पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां तो लिखता ही, नियमित डायरी भी लिखने लगा था. हालांकि ये सब गतिविधियां निशा के खालीपन को तो भर नहीं सकती थीं, पर मुझे भुलावे में रखने में कामयाब ज़रूर थीं, इसलिए अकेले रह सकता था.

अगली सुबह कॉलबेल सुनकर मैंने दरवाज़ा खोला.

“सॉरी, आपको डिस्टर्ब कर रही हूं.” सामने उर्वशी थी.

“नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. आइए.” मेरा स्वर अभी औपचारिक-सा था. ऐसी किसी अप्रत्याशित परिस्थिति में हम पारंपरिक लोग आत्मीयता प्रदर्शित कर पाने में विफल रहते हैं, बस मेरी भी ऐसी ही स्थिति थी.

“कॉफी ख़त्म हो गई है और सुबह-सुबह ऐसी आदत है. क्या….”

यह भी पढ़ेक्यों पुरुषों के मुक़ाबले महिला ऑर्गन डोनर्स की संख्या है ज़्यादा? (Why Do More Women Donate Organs Than Men?)

“बिल्कुल मिलेगी, मैं भी कॉफी का शौक़ीन हूं.” मैंने उसे कॉफी का जार दे दिया. “ओह! थैंक यू, सो मच.” उसके चेहरे पर उल्लास छा गया. शाम को उर्वशी मेरे लिए कॉफी का नया जार लेकर आई. इस समय फुर्सत में थी, तो बैठ गई. उसने बताया वो एक नामी विज्ञापन एजेंसी में कॉपी राइटर है. यह फ्लैट उसकी एक सहेली ने ख़रीदा है, जो यूरोप में रहती है. कई महीने फ्लैट खाली रखने के बाद उसने उर्वशी से कहा कि कोई अनजान टेनेन्ट रखने से अच्छा है, तुम ही शिफ्ट हो जाओ.

   अनूप श्रीवास्तव

अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORiES

Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

कहानी- इस्ला 4 (Story Series- Isla 4)

“इस्ला! इस्ला का क्या अर्थ है?” इस प्रश्न के बाद मिवान ने सभी को अपनी…

March 2, 2023

कहानी- इस्ला 3 (Story Series- Isla 3)

  "इस विषय में सच और मिथ्या के बीच एक झीनी दीवार है. इसे तुम…

March 1, 2023

कहानी- इस्ला 2 (Story Series- Isla 2)

  “रहमत भाई, मैं स्त्री को डायन घोषित कर उसे अपमानित करने के इस प्राचीन…

February 28, 2023

कहानी- इस्ला 1 (Story Series- Isla 1)

  प्यारे इसी जंगल के बारे में बताने लगा. बोला, “कहते हैं कि कुछ लोग…

February 27, 2023

कहानी- अपराजिता 5 (Story Series- Aparajita 5)

  नागाधिराज की अनुभवी आंखों ने भांप लिया था कि यह त्रुटि, त्रुटि न होकर…

February 10, 2023

कहानी- अपराजिता 4 (Story Series- Aparajita 4)

  ‘‘आचार्य, मेरे कारण आप पर इतनी बड़ी विपत्ति आई है. मैं अपराधिन हूं आपकी.…

February 9, 2023
© Merisaheli