कहानी- असंतुलित रथ की हमसफ़र 2 (Story Series- Asantulit Rath Ki Humsafar 2)

‘‘आजकल बराबरी का ज़माना है, इसलिए अगर मैंने आपका बोझ उठाया है, तो आप मेरा बोझ उठा लीजए.’’

कहते हुए उसने अपने कंधे पर टंगा बैग उतार कर दीपा की ओर बढ़ा दिया. हंसते हुए दीपा ने उसका बैग अपने कंधों पर टांग लिया. जाने क्यूं रवीश का यह व्यवहार उसके अन्तर्मन को छू-सा गया था.

 

… ‘‘क्यों?’’ दीपा ने अचकचाते हुए प्रश्नकर्ता की ओर देखा.
‘‘आप स्टेशन मास्टर से बलरामपुरवाली ट्रेन के बारे में पूछ रही थी. मुझे भी वहीं जाना था, मगर ट्रेन तो 12 घंटे लेट है.’’ उस युवक ने अटकते हुए अपनी बात पूरी की.
‘‘तो?’’
“तो इस सूनसान स्टेशन पर रात में रूकना अकेली लड़की के लिए ख़तरनाक हो सकता है.’’ उसने शांत स्वर में कहा.
‘‘तो?’’ कहते हुए दीपा ने पहली बार ध्यान से उसकी ओर देखा. आर्कषक चेहरेवाला वह नौजवान पहनावे से किसी अच्छे घर का मालूम पड़ रहा था.
‘‘तो यह रहा मेरा आधार कार्ड और ड्राइविंग लायसेंस. आप अपनी सुरक्षा के लिए इसकी फोटो खींच कर अपने घरवालों को भेज सकती है. फिर हम लोग टैक्सी शेयर करके बलरामपुर चल सकते है. तीन-चार घंटों में हम लोग वहां पहुंच जाएंगे.’’ नौजवान ने पर्स से अपना आधार कार्ड और डी.एल. निकाल दीपा की ओर बढ़ाया.
‘‘रवीश कुमार, बहुत प्रसिद्व नाम है.’’ उसका नाम पढ़ दीपा के होंठ हल्के से हिले.
‘‘जी बस नाम ही प्रसिद्व है, मगर मैं बिल्कुल अप्रसिद्व और बेरोज़गार.’’ उस नौजवान के होंठ भी हल्का-सा मुस्कुराए.
‘‘आप मेरी मदद क्यूं करना चाहते हैं?’’ दीपा ने सीधे उसकी आंखों में झांका. वह अभी भी सशंकित थी.
‘‘एक तो इंसानियत की पुकार दूसरी मेरी ख़ुद की मजबूरी और ख़ुदगर्जी.’’
‘‘कैसी मजबूरी और ख़ुदगर्जी?’’

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‘‘मैं एक बेरोज़गार हूं और बलरामपुर के एक महाविद्यालय में साक्षात्कार देने जा रहा हूं. मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि पूरी टैक्सी हायर कर सकूं. अगर आप चली चलेंगी, तो मेरे आधे पैसे बच जाएंगे और आप भी सुरक्षित बलरामपुर पहुंच जाएंगी.’’ नौजवान ने कहते हुए अपने बैग से एक लिफ़ाफ़ा निकाल दीपा की ओर बढ़ाया.

‘‘इसकी ज़रूरत नहीं है.’’ दीपा उठ खड़ी हुई और उसका आधार कार्ड और डी.एल. वापस करते हुए बोली, ‘‘चलिए टैक्सी हायर कर लीजिए.’’
‘‘इनकी फोटो तो खींच लीजिए.’’ नौजवान ने कहा.
‘‘अब इसकी ज़रूरत नहीं रही.’’ न चाहते हुए दीपा खिलखिला कर हंस पड़ी.
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि बिल्कुल ऐसा ही लिफ़ाफ़ा मेरे पास भी है और मैं भी उसी महाविद्यालय में साक्षात्कार देने चल रही हूं.’’ दीपा मुस्कुराई.
‘‘अजब इत्तिफाक है.’’ नौजवान ने सिर हिलाया.
‘‘हां, इत्तिफाक तो अजीब ही है.” दीपा एक बार फिर हंसी, तो उसके ख़ूबसूरत गालों में गढ्ढे पड़ गए, जिससे उसकी ख़ूबसूरती कुछ और निखर आई थी.
रवीश चंद पलों तक अपलक उसे देखता रहा, फिर उसे लगा कि कहीं उसकी चोरी पकड़ न ली जाए. इसलिए दीपा का सूटकेस उठाते हुए बोला, ‘‘टैक्सी स्टैंड क़रीब ही है. वहीं चल कर पता करते हैं.’’
‘‘आप रहने दीजिए, मैं उठा लूंगी.’’ संकोच से भरी दीपा ने रवीश से सूटकेस लेनी की कोशिश की, तो उसका हाथ रवीश के हाथ से टकरा गया. एक अजीब-सी सिरहन दौड़ गई पूरे बदन में.
‘‘जानता हूं, आप उठा लेंगी, लेकिन सभ्यता भी कोई चीज़ होती है.’’ रवीश ने अपनी आंखें बंद कर कुछ सोचने का अभिनय किया, फिर बोला, ‘‘आजकल बराबरी का ज़माना है, इसलिए अगर मैंने आपका बोझ उठाया है, तो आप मेरा बोझ उठा लीजए.’’
कहते हुए उसने अपने कंधे पर टंगा बैग उतार कर दीपा की ओर बढ़ा दिया. हंसते हुए दीपा ने उसका बैग अपने कंधों पर टांग लिया. जाने क्यूं रवीश का यह व्यवहार उसके अन्तर्मन को छू-सा गया था.

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टैक्सी से वे लोग साढ़े नौ बजे बलरामपुर पहुंच गए. प्रबंध-तंत्र ने सभी के ठहरने का इंतज़ाम विद्यालय के गेस्ट हाउस में किया था. अगले दिन दीपा का साक्षात्कार बहुत अच्छा हुआ. उसके मन में आस जगी थी कि शायद नियुक्ति उसे मिल जाए. किंतु नियुक्ति मिली डॉ. रवीश कुमार को और मिलती भी क्यूं नहीं. थ्रू आउट फर्स्ट क्लास, गोल्ड मेडिलिस्ट और सभी अभ्यर्थियों में एकलौता पी.एच.डी.
‘‘कांग्रेट्स.’’ दीपा ने बधाई दी.
‘‘युअर्स वेलकेम बट…’’ रवीश कुछ कहते-कहते रूक गया…

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

 


संजीव जायसवाल ‘संजय’

 

 

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Usha Gupta

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