… मुझे लगा एक कोई भारी चीज़ मेरे सिर पर आ के अचानक गिर गई हो! असीम दर्द, मेरे सिर से होता हुआ मेरे पूरे शरीर को अपनी गिरफ़्त में लेता हुआ, मेरी हर एक नस में फैलता जा रहा हो जैसे… कितनी आसानी से प्रमोद सब कुछ कह गए थे! आधा सच, आधा झूठ… गिल्ट नहीं है, तो इतने झूठ क्यूं बोलते रहे? जिस कम्फर्ट ज़ोन को आज स्वीकार रहे हैं, पहले ही आ के क्यूं नहीं बता दिया मुझे? आज सब कुछ सामने है, तो कितनी बातें बनानी आ रही है!
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अपनी पूरी ताक़त इकट्ठा करके, जैसे-तैसे मैं खड़ी हुई. दो कदम चली कि आंखों के सामने फिर अंधेरा छाने लगा, हड़बड़ा कर साइड टेबल का सहारा लिया, तो लगा कुछ गिरा… चट्ट की आवाज़ के साथ, मेरा वही फेवरेट सफ़ेद वास ज़मीन पर गिरकर दो टुकड़ों में टूट चुका था. आंखों से आंसू बह निकले. सचमुच ये वास मैं ही थी, मैं ख़ुद भी आज पता नहीं कितने टुकड़ों में टूट चुकी थी.
कौन कहता है सर्दियों के दिन छोटे होते हैं… ये दिन तो मेरे लिए पहाड़ जैसे खड़े रहते थे, एक-एक पल इतना भारी, इतना लंबा!
उस दिन के बाद दो-तीन बार और प्रमोद से इस बारे में बात हुई. हर बीतते दिन के साथ वो थोड़ी और ढिठाई के साथ अपने और देविका के संबंध की पैरवी करते रहे. अफ़सोस का एक कतरा भी उनको छूकर नहीं निकला था. मेरे लिए सब कुछ कितना कठिन होता जा रहा था. हमारे कमरे अलग हो चुके थे और मन भी!
जितने दिन प्रमोद शहर में रहते, एक बेचैनी-सी घर में फैली रहती… और जितने दिन वो शहर से बाहर रहते, वही बेचैनी मेरे मन को स्याह करती मेरे पूरे वजूद पर फैली रहती. सुबह होती तो लगता, इस समय देविका ने प्रमोद के बाल सहलाकर उनको जगाया होगा, शाम होती, तो मेरे ख़्यालों में प्रमोद-देविका हंसते हुए चाय पी रहे होते और रात होते ही मेरी नींद जैसे पंख लगाकर उड़ जाती और प्रमोद-देविका के सिरहाने जाकर बैठ जाती… कितनी ही रातें ऐसी बीतीं कि मैं चौंककर उठी और प्रमोद की उपस्थिति ढूंढ़ने के लिए बिस्तर टटोला… वो वहां थे ही नहीं, जहां उनको होना ही नहीं था. फिर पूरी रात आंसुओं में कटती… कभी पता ही नहीं था, मैं इतने आंसू छुपाए बैठी थी!
“अंजलि, मुझसे नहीं हो पा रहा. मुझे ले चलो कहीं बेटा…” उस दिन अंजलि के घर आते ही मैं फफक पड़ी. वो मेरे बाल सहलाती हुए धीरे से बोली, “कहां जाओगी मम्मा? जहां जाओगी, वहां ये सब भूल पाओगी? कुछ कहा था न मैंने आपसे, आपने सोचा उस बारे में?”
क्या कहती मैं उससे? जो बात अंजलि ने मुझसे उस दिन कही थी, तब तो मैंने उसको तुरंत झिड़क दिया था. ऐसे कैसे एकदम से तलाक़ की बात कर गई थी वो? पति-पत्नी ही नहीं हैं हम, एक बच्ची के मां-पापा भी हैं. ऐसे टूटते हैं क्या रिश्ते? उस दिन तो मैंने एकदम से कह दिया था कि सब ठीक हो जाएगा. पता नहीं उस दिन मैंने किसको दिलासा दिया था, अंजलि को या ख़ुद को? जिसको भी दिया था, झूठा ही था. ये कोई मसाला मूवी नहीं चल रही थी कि भटके पति को नायिका गृहस्थी में वापस खींच लाएगी और सुखद अंत होगा… ये एक आर्ट मूवी थी, जिसमें नायक ये कड़वा सच बता चुका था कि वो अब कभी वापस नहीं लौटेगा.
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“सोचा बेटा मैंने, लेकिन इतना आसान नहीं होता ये सब. पूरा खानदान बीस तरह की बातें बनाएगा.. सब मुझसे यही पूछेंगे कि ये कोई उम्र है अलग होने की?” मेरा डर सामने आ रहा था, अंजलि ने मेरी आंखों में घूरते हुए कहा, “क्यों मम्मा, वही खानदान पापा से नहीं पूछ सकता कि ये उम्र है ये सब करने की?”
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