कहानी- चाबियां 1 (Story Series- Chabiya 1)

इतने प्रगतिशील, प्रेरक व्यक्तित्व का इस तरह अपनी सास से दबना उसे पहले दिन से ही अखरने लगा था. वह समझ रही थी कि दो पीढ़ियों के मध्य सेतु बने रहने में उसकी प्रिय मम्मीजी को कितनी परेशानी हो रही थी, पर घर में मेहमानों की उपस्थिति और नववधू की लज्जावश उसने चुप्पी साधना ही बेहतर समझा.

 

 

नाम्या को ससुराल आए अभी सप्ताह भर ही हुआ था, पर अपनी बुद्धिमता ओैर पारखी नज़रों से उसने इतने अल्प समय में ही समस्त घरवालों का स्वभाव और मनोविज्ञान भलीभांति समझ लिया था. घर के पुरुष सदस्य यानी उसके ससुरजी और पति अपने-अपने व्यावसायिक क्षेत्र में दक्ष और कुशल थे, पर घरेलू मामलों से निर्लिप्त ही बने रहते थे.
दादीसास सुभद्राजी स्नेही और मिलनसार थीं, पर उनके परंपरावादी या कुछ सीमा तक रूढ़िवादी विचार नाम्या को खटक जाते थे. विशेषतः ऐसे रूढ़िवादी विचारों को लेकर अपनी इकलौती बहू अनीता यानी नाम्या की सास के संग टोका-टाकी नाम्या को ज़रा भी नहीं सुहाती थी.
घर में सबसे सुलझा हुआ व्यक्तित्व यदि नाम्या को कोई लगा, तो वो थीं उसकी सास अनीताजी. अपनी नम्रता, धैर्य और सहनशीलता से उन्होंने पूरे घर को एक सूत्र में बांध रखा था. अपनी सास सुभद्राजी की टोकाटाकी भी वे नीलकंठ बनकर निःशब्द गले के नीचे उतार लेती थीं. नाम्या सगाई से शादी के अंतराल में ही सास से ख़ूब हिलमिल गई थी.
इतने प्रगतिशील, प्रेरक व्यक्तित्व का इस तरह अपनी सास से दबना उसे पहले दिन से ही अखरने लगा था. वह समझ रही थी कि दो पीढ़ियों के मध्य सेतु बने रहने में उसकी प्रिय मम्मीजी को कितनी परेशानी हो रही थी, पर घर में मेहमानों की उपस्थिति और नववधू की लज्जावश उसने चुप्पी साधना ही बेहतर समझा.
“बहू, तूने श्रेयस की बहू को ढंग से पांव छूना नहीं सिखाया. पांव छूना मतलब दोनों हाथों से पांव दबाना होता है. ढंग से पल्लू लेना तो दूर अभी से सलवार-कमीज़ में घूमने लगी है.”
“ज… जी मांजी. हमारे रीति-रिवाज़ सीखने में उसे समय लगेगा. मैं समझा दूंगी.”
“पहले तू ख़ुद तो समझ ले. दस दिन होने को आ रहे हैं उसे इस घर में. अभी तक तूने उसे गृहस्थी की चाबियां नहीं सौंपी हैं. याद है, कैसे तुझे गृहप्रवेश कराते ही मैंने अपनी कमर में खोंसा चाबियों का झुमका थमा दिया था. यह कहकर कि ले बहू आज से पूरे घर-परिवार की ज़िम्मेदारी तेरे हाथ में. अब जब तू उसे ज़िम्मेदारी सौंपेंगी ही नहीं, तो वह संभालेगी कैसे?”

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अब अनीताजी सास को कैसे समझाए कि घर में कहीं ताले हों तो वह नई नवेली बहू को चाबियां सौंपे न? उनका ज़माना और था. तब नकदी-ज़ेवर सब घर में ही तालों में बंदकर रखे जाते थे. यहां तक कि रसोई के साथ लगे भंडारघर पर भी ताला लटका रहता, जिसमें पूरे साल का अनाज, घी, तेल, दालें, मेवे आदि सहेजकर रखे जाते थे.
एक ताला पूजाघर पर भी लटका रहता, क्योकि सुभद्राजी को रोज़ अपने पूजा के चांदी के बर्तन और रुपए चमकाने होते थे. जब ननद की शादी हो गई और देवर पढ़ने दूसरे शहर चला गया, तब एक दिन अनीताजी ने ही मांजी को समझा-बुझाकर भंडारघर और पूजाघर के ताले हटवा दिए थे.
“घर में अब हम तीन ही तो प्राणी बचे हैं मांजी. उसमें भी ये तो व्यापार के सिलसिले में कई-कई दिनों के लिए बाहर चले जाते हैं. डायबिटीज़, ब्लडप्रेशर के कारण आपकी खुराक आधी भी नहीं रह गई है. खाना भी कम तेल-मसालों का बनने लगा है. ऐसे में सालभर का राशन इकट्ठा रखने का कोई तुक नहीं है. नौकरी के मारे मैं सब संभाल भी नहीं पाती. पिछली बार भी गेंहू में घुन लग गए थे…”
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…


संगीता माथुर

 

 

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