कहानी- चाबियां 2 (Story Series- Chabiya 2)

“इतने बरस साथ रहते मैं उनकी मनोवृति और हर बात का मंतव्य बख़ूबी समझने लगी हूं. इस उम्र में एकाकी जीवन जीते इंसान अपनी सत्ता और अधिकार को लेकर आशंकित रहने लगता है. इसलिए समय-समय पर सबको आज़माता और आश्वस्त होता रहता है. हमें बस उन्हें ज़रा-सा प्यार, सम्मान और आश्वासन देने की आवश्यकता है. इतने में ही उनके मुंह से आशीर्वादों की झड़ी बरसने लगती है…”

 

 

 

… “हमारे समय तो कभी नहीं लगे.” मांजी तुनक उठी थीं.
“जी वही तो. अब मैं आप जितनी सुघड़ गृहिणी तो हूं नहीं. स्कूल की नौकरी के साथ जैसे-तैसे घर चला रही हूं. आप भी घुटनों में दर्द की वजह से इतना कुछ कर नहीं पातीं. मेहमान भी अब कम आते हैं, कम रुकते हैं. एकाध बार हम उन्हें बाहर खिला लाते हैं…”
“ठीक है. तुझसे संभले उतना कर.” सुभद्राजी ने उकताकर बीच में ही बात समाप्त कर दी थी.
और अनीताजी अगले ही दिन प्रसन्नचित्त मन से एक-एक किलो के सुंदर पारदर्शी डिब्बे ख़रीद लाई थीं. और उन्हें मालती से रसोई में ही कतार से जमवा लिए थे.
“इनमें घूमते-फिरते नज़र भी आता रहेगा कि कितना सामान निकाला गया, कितना बचा? क्या और लाना है? है न मांजी?”
“हां.” सुभद्राजी ने बेमन से सहमति दे दी थी. उनके हाथ-पांवों में अब ज़्यादा कुछ करने की शक्ति बची नहीं थी. दोनों वक़्त हाथ में लगी हुई थाली मिल जाए, बहुत है. सोचकर उन्होंने संतोष कर लिया था.
स्टील का ख़ूबसूरत-सा पूजा का सेट भेंट कर अनीताजी ने उनका रोज़-रोज़ चांदी के बर्तन चमकाने का झंझट भी समाप्त कर दिया था.
“आप तो मांजी बस पूजा करके उठ जाया कीजिए. मालती अपने आप बर्तन समेट लेगी और साफ़ करके रख भी देगी. ये चांदी के बर्तन और रुपए मैं आज ही आपके लॉकर में रखवा देती हूं. दीवाली, तीज-त्योहारों पर जब गहने निकलवाएगें, ये भी निकाल लाएंगे और साथ ही वापस रखवा देगें. आपको इनकी रोज़ की सार-संभाल और हिफाज़त से तो छुट्टी मिले.”
सुभद्राजी को इस व्यवस्था से सचमुच बहुत आराम मिला था और इस तरह पूजाघर का ताला भी हट गया था.
“एक बात कहूं मम्मीजी.” नाम्या ने कान में सरगोशी की, तो अनीताजी वर्तमान में लौटीं. नाम्या ने कपड़ों का बड़ा-सा ढेर तह कर दिया था और वे कब से ख़्यालों में खोई उसी साड़ी से खेल रही थीं.
“आपको नहीं लगता दादीजी की हर उचित-अनुचित बात को मानकर आप उनकी निरंकुशता को और बढ़ावा देती हैं? मैं तो आपकी जगह होती, तो इतना सब कुछ नहीं सुन और सह पाती.”

 

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“इतने बरस साथ रहते मैं उनकी मनोवृति और हर बात का मंतव्य बख़ूबी समझने लगी हूं. इस उम्र में एकाकी जीवन जीते इंसान अपनी सत्ता और अधिकार को लेकर आशंकित रहने लगता है. इसलिए समय-समय पर सबको आज़माता और आश्वस्त होता रहता है. हमें बस उन्हें ज़रा-सा प्यार, सम्मान और आश्वासन देने की आवश्यकता है. इतने में ही उनके मुंह से आशीर्वादों की झड़ी बरसने लगती है. मानती हूं सहमत न होते हुए भी सहमति जताना कितना मुश्किल है. पर उनका मन रखने पर उन्हें बच्चों की तरह किलकता देखकर अनूठी ख़ुशी मिलती है. मैं इस परिवार को जोड़े रखने की एक कड़ी बनी, मांजी की ख़ुशी और गर्व का सबब बनी, यह सोच एक अद्भुत सुकून का एहसास कराती है.
मानती हूं तुम आधुनिक, बेबाक़, बिंदास पीढ़ी के लिए यह सहज नहीं है. फिर भी मेरा तुमसे आग्रह है कि कोशिश करना उनका दिल न दुखे. कुछ दिनों की बात है, फिर तुम श्रेयस के संग चली जाओगी. इसलिए जब भी, जितना भी समय उनके साथ बिताओ प्रयास करना रिश्तों में कटुता न आने पाए. कभी कुछ समझाना भी पड़े तो प्यार और नरमाई से काम लेना…”
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

संगीता माथुर

 

 

 

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Usha Gupta

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