अपनी छोटी बहन की सहेली से बातें करना, निश्चय ही यह बात घर के बड़ों को कभी गवारा न होती. और बडों में मां-बाप के अतिरिक्त दादा-दादी भी थे. सामना हो जाने पर ‘नज़र बचा कर निकल जाना’ ही राघव के शरीफ़ और गुणगान होने का मानक था. मुश्किल यह थी कि छोटे शहरों में घर बड़े होते हैं, सो सामना होने की गुंजाइश भी कम ही रहती है.
राघव के पक्ष में कितने ही तर्क रखे जाएं वास्तविकता तो यही थी कि उसमें आत्मविश्वास की ज़बरदस्त कमी थी, नहीं तो प्यार करनेवाले, तो पर्दाधारी लड़कियों तक अपने संदेश पहुंचा देते हैं, राघव को तो बहुत अवसर मिले थे. पर वह इसी उलझन में रह गया कि श्यामली इतनी सुंदर और मैं दिखने में साधारण सा. फिर जाति का प्रश्न भी था. श्यामली सिख परिवार से और राघव यूपी के बनिया परिवार से. यह तो दोनों सखियों के बचपन की मैत्री थी, जो निभ गई थी पर विवाह सम्बन्ध के लिए बड़े कभी नहीं मानेंगे. राघव अपने मन को यही कह कर समझा देता.
उसने अपनी बहन से भी मन की बात नहीं बांटी. नहीं तो वह ही श्यामली के मन को टटोलती.
इंजीनियरिंग के अंतिम सत्र में कैम्पस सिलेक्शन में उसे मनपसन्द नौकरी मिली और उधर उसकी बहन निधि का विवाह तय हो गया. विवाह की तिथि राघव की परीक्षाओं के बाद की रखी गई थी.
विवाह में भाई पर अनेक ज़िम्मेदारियां थीं. लेडीज़ संगीत के दिन चाय-नाश्ते का पूरा प्रबंध उसके ज़िम्मे था, जिसके लिए वह कमरे से अंदर-बाहर हो रहा था. विवाह संबंधी पंजाबी गीतों, टप्पों से श्यामली ने ख़ूब रौनक़ लगा रखी थी.
जब उसने असां चिड़ियां दा चंबा वे बाबुल असी उड़ वे जाणां… गाया, तो सबकी आंखें नम हो आईं. कैसा तो दर्द है इस गीत में! हरियाणां में रहते-रहते राघव थोड़ी-बहुत पंजाबी समझने लगा था. सच ही तो है, उसकी बहन निधि भी तो चिड़िया की तरह उड़ जानेवाली थी. वह अपना नीड़ त्याग एक नए अनजाने घर जा रही थी अथवा यह घर पराया था और अब वह अपने घर जा रही थी? कौन-सा नीड़ उसका अपना था कौन जाने? बचपन के वह खेल-कूद, लड़ाई-झगड़े महज़ यादें बन जाएंगी. गुड़िया और खिलौने आलमारी में पड़े रह जाएंगे. कैसे यह लड़कियां इस उम्र में ही इतने बड़े समझौते कर लेती हैं? लड़के से कोई कह दे दूसरे के घर जा बसने के लिए, एक-दो दिन को नहीं- सदा के लिए!
गीत सुनने के बहाने राघव ने उस दिन पहली बार श्यामली को जी भर कर देखा था और अनेक बार उसे भी अपनी ओर देखते पाया था. नहीं उस दिन उसके होंठों पर मुस्कुराहट नहीं थी, न ही उन आंखों में चमक. ढेर सारे प्रश्न थे उन आंखों में. चाह और अपेक्षा थी. समझ रहा था राघव, परन्तु इतनी भीड़ में कहे तो कैसे?
‘अगली छुट्टियों में ज़रूर उससे बात करूंगा…’ राघव ने मन ही मन तय किया.
उषा वधवा
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