कहानी- ढलती सांझ के प्रेममयी रंग 2 (Story Series- Dhalti Sanjh Ke Premmayi Rang 2)

 

उनका बोलना बतियाना, एक-दूसरे की ओर झुकना, मोबाइल में कुछ दिखाने या कहने के बहाने कंधे से सट जाना. आंटी का चुपचाप कोहनी मारना या अंकल के पैर पर हौले से चपत मार देना… सब कुछ कितना स्वाभाविक था, एक अंतरंग प्रेम को अभिव्यक्त कर रहा था उन दोनों के बीच.

 

 

 

 

… विशाखा ने देखा आंटी के चेहरे पर एक नवोढ़ा की तरह सलज्ज मुस्कान खिल उठी. उसकी नज़रें आंटी से मिलीं, तो वह मुस्कुरा दीं. प्रत्युत्तर में वह भी मुस्कुरा दी.
“कहां तक जा रही हो?” आंटी ने पूछा.
“जी अहमदाबाद.” उसने उत्तर दिया.
“काम से जा रही हो?”
“नहीं मेरे भैया रहते हैं. उन्हीं के पास जा रही हूं.” विशाखा बोली.
“हम तो सोमनाथ जा रहे हैं घूमने. हर कुछ महीनों बाद कहीं ना कहीं निकल जाते हैं हम दोनों. दोनों बेटे-बहू, पोते-पोती साथ ही रहते हैं ना, तो परिवार के बीच एक-दूसरे के लिए समय ही नहीं मिलता. तो हम साल में दो-तीन बार हफ़्ते भर के लिए बाहर निकल जाते हैं और एक-दूसरे के साथ जी लेते हैं.” आंटी ने बड़ी सहज आत्मीयता से अपने बारे में बता दिया.

 

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आनंद से उनका चेहरा दीपदीपा रहा था. सुनकर विशाखा को घोर आश्‍चर्य हुआ. इस उम्र में भी एक-दूसरे के साथ की, एकांत की इतनी इच्छा. मगर प्रकट में वह बस मुस्कुरा दी.
“अभी तक आए नहीं, कहा था मत उतरो.” अब आंटी के चेहरे पर हल्की-सी चिंता उतर आई थी.
विशाखा सोच ही रही थी कि वह उठकर दरवाज़े तक देख आए कि तभी अंकल हाथ में कचोरी के दोने लिए आ गए. आंटी प्रसन्न हो गईं.
“यह लो तुम्हारी कचोरियां.” एक दोना आंटी को थमाने के बाद एक उन्होंने विशाखा की ओर बढ़ा दिया.
“अरे, नहीं रहने दीजिए. आप लीजिए ना.” विशाखा संकोच से भर कर बोली.
“ले लो बेटी, एक तुम्हारे लिए भी लाया हूं.” अंकल ने स्नेह से कहा.
बेटी सुनते ही मन के भीतर कुछ पिघल गया. जबसे मां-पिताजी गए, कोई बेटी कहनेवाला ही नहीं रहा. ससुराल में वह सबसे बड़ी है, तो शादी के दूसरे दिन से ही सब की मां बन कर रही. पहले ननद-देवरों की, फिर अपने बच्चों की. अब बहुओं की भी और अब तो तीन-तीन पोते पोतियां भी हैं उसके. जाने कब वह पत्नी से मां और फिर दादी बन गई.
कचोरी सच में बहुत स्वादिष्ट थी. वह तो अक्सर इस रास्ते से जाती है, पर कभी यहां की कचोरी नहीं खाई. ध्यान फिर अंकल-आंटी की ओर चला गया. दोनों कचोरी के स्वाद के साथ कोई पुराना क़िस्सा याद करके हंस रहे थे. विशाखा को अजीब भी लग रहा था और अच्छा भी लग रहा था.

 

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बरबस होठों पर एक आत्मीय मुस्कान आ जाती. उनका बोलना बतियाना, एक-दूसरे की ओर झुकना, मोबाइल में कुछ दिखाने या कहने के बहाने कंधे से सट जाना. आंटी का चुपचाप कोहनी मारना या अंकल के पैर पर हौले से चपत मार देना… सब कुछ कितना स्वाभाविक था, एक अंतरंग प्रेम को अभिव्यक्त कर रहा था उन दोनों के बीच.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें

डॉ. विनीता राहुरीकर

 

 

 

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