… आज नाश्ते की मेज पर सीमा अकेली ही बैठी अपना बेस्वाद सा पर सोकॉल्ड हेल्दी नाश्ता खा रही थी कि तभी उसकी 17 साल की बेटी नाश्ता करने आई. सीमा ने अपनी पैनी निगाहों से उसे ऊपर से नीचे और फिर नीचे से ऊपर देखा और बोली, “आभा, यह क्या है? यह किस तरह के कपड़े पहने हैं? जाओ, कुछ अच्छा पहनकर आओ. ऐसे कटे-फटे से कपड़ों में मैं तुम्हें बाहर नहीं जाने दूंगी. ज़रा तहज़ीब में रहना सीखो. अब तुम बड़ी हो गई हो.” आभा ने सीमा की बात पूरी होने दी और फिर बोली, “मां, आप मोरल पुलिसिंग मत करो. मैं अपना ख़्याल ख़ुद रख सकती हूं. आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. और वैसे भी आप में फैशन सेंस बिल्कुल नहीं है.”
सीमा के अंदर की मां एक 17 साल की छोकरी से बहस में हार मानने को तैयार नहीं थी. उसने भी आभा को पलटकर जवाब दिया, “अरे, परेशान ना हो मतलब? मां हूं, परेशान तो होना पड़ेगा और यह कैसा फैशन है, जो कपड़ों को फाड़कर किया जाता है. तुम कान खोल कर सुन लो आभा…” सीमा अभी कुछ कह ही रही थी कि बाहर से किसी लड़की की आवाज़ आई, “एब्ज… एब्ज चलो… हमें देर हो रही है…” इतना सुनना था कि आभा ने अपना छोटा-सा बैग उठाया और बोली, “चलो… मां तुम्हारा भाषण फिर कभी सुनूंगी मेरे दोस्त बाहर इंतज़ार कर रहे हैं…” सीमा आभा को पीछे से रोकती ही रह गई, “कहां जा रही हो..? और यह एब्ज क्या है? तुम्हारे दोस्तों से कहो तुम्हारा नाम आभा है…” सीमा की ये सारी बातें पूरी होती तब तक आभा जा चुकी थी. तभी सीमा की फोन की घंटी बजी रमेश का फोन था.
सीमा ने बड़ी हड़बड़ी में फोन उठाया और बोली, “अच्छा हुआ रमेश तुमने फोन लगाया. अभी मैं तुम्हें ही फोन लगानेवाली थी. तुम ज़रा आभा से बात करो, यह सब इस घर में नहीं चलेगा…”
सीमा सब कुछ एक सांस में कह देना चाहती थी, पर राकेश ने उसकी बात बीच में ही काटकर कहा, “अरे रुको ज़रा, मैं तुमसे यह सब बातें अभी नहीं कर सकता. मेरी एक मीटिंग चल रही है. सुनो मैंने तुम्हें फोन इसलिए किया है कि आज बिजली का बिल भरने की आख़िरी तारीख़ है. मेरा इंटरनेट ठीक से नहीं चल रहा, तो तुम बिजली घर जाकर बिल भर दो. साथ ही मेरे क्रेडिट कार्ड का भी पेमेंट कर दो और वही बैंक के पास मोबाइलवालों का ऑफिस भी है, तो मेरे इंटरनेट की कंप्लेंट भी दे देना. चलो मैं फोन रखता हूं, बहुत काम है.” सीमा एकतरफ़ा सुन रही थी और अंदर ही अंदर ग़ुस्से से आगबबूला हो रही थी. वह तमतमाती हुई आभा के कमरे में आ गई. जहां हर चीज़ फैली हुई थी. उसने ग़ुस्से में अपने आप से ही बातें करते हुए कमरे को समेटना शुरू किया, “सब कुछ मुझ पर डाल दो. सारे काम और सब कुछ … मैं कूड़ेदान ही तो हूं, कोई मेरी नहीं सुनता…” अचानक बोलते-बोलते उसकी नज़र आईने पर पड़ी. दर्पण में अपने अक्स से बोली, “कितनी मोटी और भद्दी हो गई हूं मैं… चेहरे पर कितनी लकीरें आ गई हैं. मुझ में कुछ भी अच्छा नहीं बचा…” ऐसा कहते-कहते सीमा हांफने लगी. उसे लगा जैसे उसकी तबीयत ख़राब हो रही है. अब उसकी सांसें काफ़ी तेज़ चल रही थीं. उसने कार निकाली और सीधा अपने डॉक्टर के क्लीनिक चली गई. डॉक्टर ने बताया कि ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया है. कुछ दवाइयां और एक नसीहत दी, “सीमा, जिम के बंद कमरे में ट्रेडमिल पर चलने की जगह खुली हवा में टहलो, ताकि खुली हवा और पेड़-पौधों के सानिध्य में तुम्हारा यह अवसाद भी कुछ कम हो.” सीमा नहीं जानती थी कि डॉक्टर की नसीहत उसका जीवन बदलनेवाली थी.
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सीमा को अब कुछ नया करने को मिला था. डॉक्टर का बताया हुआ एक नया एडवेंचर. सीमा ने अपनी तैयारी शुरू की. अपने घर के आस-पास एक बगीचा ढूंढ़ निकाला, जहां लोग टहलने जाते थे. फिर कुछ शॉपिंग की, जैसे- नए जूते, एक कैप, पानी की बोतल आदि. उसने रात को ही अपना पूरा बैग भर कर रखा. सुबह पांच बजे का अलार्म भी लगाया.
आज पहला दिन था, सीमा देर नहीं करना चाहती थी. सुबह ठीक साढ़े पांच बजे व बगीचे में पहुंच गई. अपना बैग उसने कार में ही रखा था. किसी वीरांगना की भांति उसने चलना शुरू किया. चलते-चलते उसे बगीचे में से बदबू आने लगी. उसने अपनी जेब से रुमाल निकाला और मुह पर बांध लिया, सिर पर कैप, नाक पर रूमाल… वह किसी मिशन पर निकले एजेंट सी प्रतीत हो रही थी. बगीचे के 8-10 चक्कर काटने के बाद व पसीने से तर थी. उसने कार से अपना बैग निकाला और एक बेंच पर बैठ गई.
वह अपना पसीना सुखा रही थी कि तभी उसके कानों में मेघ गर्जना से ठहाकों की आवाज़ सुनाई पड़ी. उसने चौंक कर देखा, तो पास ही एक चायवाले की छोटी-सी दुकान थी. आवाज़ वहां पर खड़े एक झुंड से आ रही थी. सीमा ने मुंह फेर लिया और सिर हिलाते हुए बोली, “जाहिल लोग… सार्वजनिक जगह पर कितना शोर मचा रहे हैं. कुछ लोगों को तहज़ीब का मतलब ही नहीं पता होता.” इतना कहना था कि सीमा के बिल्कुल पास से आवाज़ आई, “मैडमजी, चाय पिएंगी, बढ़िया अदरकवाली बनाकर लाता हूं.” सीमा ने चौक कर पीछे देखा, तो चायवाला खड़ा था. सीमा रूखे से स्वर में बोली, “नहीं… नहीं, मैं चाय नहीं पीती.” इतना कहकर बैग से अपना प्रोटीन शेक निकालकर पीने लगी. अब यह रोज़ की बात हो गई थी. सीमा का टहलना, उस बेंच पर बैठना, उस झुंड का ठहाके लगाना, सीमा कुढ़ना और चायवाले का सीमा को चाय के लिए पूछना.
माधवी निबंधे
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