कहानी- जब जागो तभी सवेरा 3 (Story Series- Jab Jago Tabhi Savera 3)

 

तुम मुझे देखकर हाथ माथे से छुआ देते और मैं मुस्कुरा कर स्वीकार कर लेती. ऐसा नहीं था कि हम हाथ जोड़कर एक-दूसरे को नमस्कार भी नहीं कर सकते थे, पर औरों को अपनी ओर आकर्षित नहीं करना चाहते थे. जब भी तुम्हें देखती मन और बुद्धि के बीच संघर्ष होता. मन चाहता भाग कर तुम्हारा हाथ पकड़ लूं. ज़िंदगीभर के क़िस्से सुनूं-सुनाऊं, पर बुद्धि एकदम निषेध कर देती. मन ज़ोर लगाता, पर आत्मा न मानती.

 

 

 

 

 

… धीमी गति से चले या तेज़, समय तो चलता ही रहता है. कैलेंडर के पन्ने पलटते रहे और नए कैलेंडर आते रहे. इधर उधर से फुसफुसाहटें मुझ तक भी पहुंचीं- ‘तुमने विवाह न करने की ठान रखी है.’ सदा के ही चुप्पे तुम, आसानी से कहां बतानेवाले थे. यह तो बहन के बहुत परेशान करने पर तुमने इतना कहा, “जिससे करना था उसका तो हो चुका. जब मां ने ही अपना वचन नहीं निभाया, तो अब मुझे क्यों परेशान किया जा रहा है?”

 

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मां को अपना भूला-बिसरा वादा याद आया, तो उसने मुझसे मिन्नत की कि मैं तुम्हें विवाह के लिए राज़ी कर लूं. मेरी बात ज़रूर मान लेगा.
अजब स्थिति थी मेरी. बात सुनकर देर तक तुमने मेरी ओर देखा. कहा कुछ भी नहीं. न क़िस्मत पर दोष, न मां-बाप पर, बस चुप. मैं चिल्लाना चाह रही थी. इसी चुप के कारण तुम पहले भी हारे हो. अब तो मौन तोड़ो. ख़ामोश रहने से भी ख़्वाहिशें पूरी हुई हैं कभी? यही बात तुम आज तक नहीं समझ पाए. पर उस दिन भी तुमने अपने आगे ख़ामोशी की दीवार खड़ी कर दी थी. तुम्हारी बातों का काट दिया जा सकता था. तुम्हारे तर्कों पर नए तर्क रखे जा सकते थे, पर तुम्हारी ख़ामोशी के आगे हार गई मैं.
तुम पर दबाव डालती भी तो क्या कहकर? विवाह तो कर ही लो, चाहे फिर उसे प्यार करो चाहे नहीं.
एक बेक़सूर लड़की को ऐसी सज़ा!

 

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छोटे से उस शहर में ऐसा तो संभव ही नहीं था कि हम एक-दूसरे से न टकराते. शादी-ब्याह का जश्न, कोई पार्टी अथवा फिर कोई मृत्यु समाचार ही हमें आमने-सामने ला खड़ा करता. पर यदि बचना संभव भी होता तो क्या हम बचना चाहते थे? कमरे की, हॉल की भीड़ के उस पार से देख भर लेने का मोह न तुम छोड़ सकते थे न ही मैं. तुम मुझे देखकर हाथ माथे से छुआ देते और मैं मुस्कुरा कर स्वीकार कर लेती. ऐसा नहीं था कि हम हाथ जोड़कर एक-दूसरे को नमस्कार भी नहीं कर सकते थे, पर औरों को अपनी ओर आकर्षित नहीं करना चाहते थे. जब भी तुम्हें देखती मन और बुद्धि के बीच संघर्ष होता. मन चाहता भाग कर तुम्हारा हाथ पकड़ लूं. ज़िंदगीभर के क़िस्से सुनूं-सुनाऊं, पर बुद्धि एकदम निषेध कर देती. मन ज़ोर लगाता, पर आत्मा न मानती.
दो दिन बाद ही मीना को सुबह-सुबह अपने द्वार पर देख मैं हैरान तो हुई, पर यह सोचकर ख़ुशी भी हुई कि उसकी ढाई वर्षीय बिटिया के संग दिनभर रौनक़ रहेगी. बस मन में एक विचार ज़रूर कौंधा, अभी दो दिन पहले ही तो मुलाक़ात हुई है. बच्ची को गोद में उठा इतनी दूर अकेली आई है, तो कोई ख़ास वजह ही होगी.
पर असली बात की तो मैंने कल्पना ही नहीं की थी.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें

उषा वधवा

 

 

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Usha Gupta

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