… थोड़ी देर धमाचौकड़ी मचा कर बच्ची सो गई. जैसे ही मैं रसोई में चाय बनाने पहुंची मीना मेरे पीछे आ गई. लगा वह मुझसे कुछ कहना चाह रही है, पर हिम्मत नहीं जुटा पा रही. उसकी झिझक से मैंने अंदेशा लगाया कि बात उसके पति दिनेश को लेकर ही हो सकती है. देखने में साधारण पर अपनी बातों से सबका दिल जीत लेनेवाला, ख़ुशमिज़ाज, आकर्षक, किसी भी पार्टी की जान दिनेश को मैं बहुत दिनों से जानती हूं. पर किसी को सामाजिक तौर पर जानना और उसके संग निभाना दोनों बहुत अलग बातें हैं.
मैंने सीधे ही पूछ लिया, “दिनेश के साथ कोई झगड़ा हो गया क्या?”
और वह उत्तर देने की बजाय फफक कर रो पड़ी. कुछ समय लगा उसे बात करने लायक़ होने में.
“बताओ दीदी क्या कमी देखती हो मुझमें? पूरा प्रयास करती हूं इन्हें ख़ुश रखने का, पर इनकी नज़र है कि भटकती ही रहती है. देश में एक के बाद एक मिल जाती थीं. अनेक रातें मैंने अकेले बिताई हैं, आस-पड़ोस में यह कहकर कि दफ़्तर के काम से बाहर गए हुए हैं. सोचा यहां आकर कुछ चैन से रहूंगी, पर ऐसे पुरुष लड़कियों को फुसलाने में माहिर होते हैं.”
“दिनेश बहुत मिलनसार है. शीघ्र ही सबसे घुलमिल जाता है. तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि उसका इरादा ग़लत होता है?”
कहने को तो मैं कह गई, पर अपनी बात मुझे ख़ुद ही खोखली लगी. स्त्री की नज़र बहुत तेज़ होती है पुरुष की अच्छी-बुरी नज़र पहचानने में और पत्नी की दृष्टि पति की नज़र न पहचाने यह असम्भव है.
“कोई युवा लड़की दिखी नहीं कि लार टपकने लगती है. आप मानेंगी नहीं मैं अपनी छोटी चचेरी-ममेरी बहनों का अपने घर आना किसी न किसी बहाने टाल जाती हूं. मैं जानती हूं वह मेरे घर सुरक्षित नहीं. फिर बदनामी का डर. अभी तो सब ढका-दबा है. सिर्फ़ मैं ही जानती हूं, पर ऐसा तिरस्कृत जीवन कब तक जिया जा सकता है? और अभी तो शुरुआत है जीवन की. कल को अवनि बड़ी होकर सवाल पूछेगी तब? कैसे इज़्ज़त कर पाएगी वह अपने पापा की?”
मैं ख़ामोश उसकी बातें सुनती रही. वह कभी ख़ामोश हो जाती कभी बोलने लगती, मानो स्वयं से ही बातें कर रही हो.
“तुम्हारे पूछने पर क्या कहता है दिनेश?”
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“बस एक ही उत्तर है- ‘तुम्हें तो कोई कमी नहीं देता न! न पैसे की न कोई और बंदिश. तुम्हें जो चाहिए ख़रीदो पहनो, जहां चाहो घूमों-फिरो.’ पर दीदी मुझे अपना पति चाहिए और वह भी सम्पूर्ण. किसी से बांट कर नहीं.”
उषा वधवा
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