कहानी- जब जागो तभी सवेरा 5 (Story Series- Jab Jago Tabhi Savera 5)

 

पत्नी धर्म पूरी तरह निभा कर भी, घर के सब दायित्वों का निर्वाह करके भी. अंतरंग क्षणों में मन कहीं और नहीं होता है क्या? कल्पना में चेहरा किसी और का नहीं होता क्या? कोई न जाने मेरा अपराध, मैं तो जानती हूं न! पति नहीं जानते कि मैं उनकी अपराधिनी हूं, पर इससे मेरा अपराध कम तो नहीं हो जाता न?

 

 

 

 

… “मैं समझाऊंगी दिनेश को.” मैंने कह तो दिया पर भीतर बहुत अवश भी महसूस किया. मैं उसे समझाने का प्रयत्न ही कर सकती हूं, अधिक कुछ नहीं. जब तक दिनेश अपनी ग़लती स्वयं न महसूस करे, जब तक उसका अपना ज़मीर न जागे. पर उसे राह पर लाने से पहले क्या मुझे अपने गिरेबान में नहीं झांकना चाहिए? पहले स्वयं को सुधारूं- सुधारने का प्रयत्न ही करूं, तभी तो उसे समझाने की हक़दार बनूंगी.

 

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हर पत्नी अपने पति को पूरा ही चाहती है, किसी से बांट कर नहीं और मेरा पति भी निश्चय ही यही चाहता होगा.
छह माह शेष हैं हमारे इस प्रवास के और मैंने भी दृढ़ निश्चय कर लिया है अपने अतीत को एकदम से काट कर अलग कर देने का. काश! हम वस्तुओं की मानिंद अपनी यादों को भी किसी आलमारी में बंद करके ताला लगा सकते. काश! हम किसी जादुई रबर से अपनी यादों को मिटा देना संभव होता. परन्तु फिर मनुष्य होने के नाते अपनी भावनाओं पर विजय पा लेने की, सही और ग़लत की पहचान कर सकने की क्षमता भी तो सिर्फ़ हमें ही प्राप्त है.
पति के साथ अब तक मैंने अन्याय ही तो किया है. पत्नी धर्म पूरी तरह निभा कर भी, घर के सब दायित्वों का निर्वाह करके भी. अंतरंग क्षणों में मन कहीं और नहीं होता है क्या? कल्पना में चेहरा किसी और का नहीं होता क्या? कोई न जाने मेरा अपराध, मैं तो जानती हूं न! पति नहीं जानते कि मैं उनकी अपराधिनी हूं, पर इससे मेरा अपराध कम तो नहीं हो जाता न?
कहते हैं न कि जहां चाह, वहां राह. अभी पन्द्रह दिन पहले ही बता रहे थे कि कलकत्ता में इनके दफ़्तर की एक नई ब्रांच खुल रही है, जहां इन्हें मुख्य अधिकारी बनाकर भेजना चाह रहे हैं. प्रगति का सुनहरा अवसर मिला था, पर मेरा मन ही नहीं था वहां जाने को.
यहां आते समय भी लगता था कि तुम्हें देखे बिना कैसे जी पाऊंगी? पर वर्ष बीतने को आया. कलकत्ता के शुरुआती दिन मुश्किल होगी ज़रूर. यादों के हुजूम पीछा करेंगे, परन्तु धीरे-धीरे सिकुड़ भी जाएंगे. नए शहर का नया माहौल, मित्रों के नए दायरे पुरानी यादों को सिमटने पर मजबूर कर देंगे.

 

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मेरा तुमसे दूर रहना अनिवार्य है. अभी तक तो मैंने तुम्हें भुलाने का कभी प्रयास ही नहीं किया था. सोचती थी कि यदि मैं अपना कर्तव्य पूरा कर रही हूं, तो क्या फ़र्क़ पड़ता है. यदि मेरे हृदय के विशाल आंगन के एक कोने में किसी और का वास है?
पर नज़दीकी रिश्तों में तन और मन को जुदा तो नहीं किया जा सकता न!
सम्पूर्ण समर्पण में सम्पूर्णता तो उसकी अनिवार्य शर्त है.

उषा वधवा

 

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Usha Gupta

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