कहानी- खुली किताब का बंद पन्ना… 4 (Story Series- Khuli Kitab Ka Band Panna 4)

बहुत डरते-डरते ही उन्होंने मेरी बात मानी थी. लेकिन उस दिन डिनर टेबल की सजावट और व्यंजनों का स्वाद चखकर, तो वे ख़ुद बेहोश होते-होते बचे थे. तब मैंने उन्हें बताया था कि मैंने कई कुकिंग कोर्सेज़ कर रखे हैं. मेहमानों के जाने के बाद उन्होंने दीवानों की तरह मेरे हाथ चूम लिए थे.” उन पलों को याद करते हुए मैं एक बार फिर अभिभूत हो उठी थी.

 

 

 

“ऐसा तू सोचती है. ख़ैर, अपना-अपना अनुभव है. मैं तो इसे तेरा भोलापन कम बेवकूफ़ी ज़्यादा कहूंगी. हां, तो मैं क्या बता रही थी? उस रात विनय ने मुझे पागलों की भांति प्यार किया था. बार-बार उसके मुंह से एक ही बात निकल रही थी. ओह रिया, जितना मैं तुम्हें जानता जा रहा हूं तुम्हारे प्रति मेरा प्यार बढ़ता ही जा रहा है. जाने तुम्हारे व्यक्तित्व के और कितने पहलू हैं, जिनसे मैं अभी तक अनजान ही हूं. तुम्हें जब तक पूरा जान नहीं लूंगा ऐसे ही प्यासा भटकता रहूंगा. वाक़ई उन क्षणों में उसकी प्यास देखने लायक थी.” मैंने बात समाप्त कर तन्वी की ओर नज़रें उठाईं, तो पाया वह बेवकूफ़ों की तरह निर्निमेष मुझे ही ताके जा रही थी.
घर पहुंचे तो विनय मोबाइल पर वार्तालाप में व्यस्त थे. उनका उत्साह और ख़ुशी देखने लायक थी. तन्वी साथ नहीं होती, तो शायद वे मुझे बांहों में ही भर लेते.
“जानती हो किसका फोन था? बॉस का. शुक्रवार को हमने उन्हें डिनर दिया था न, उसकी जी खोलकर तारीफ़ कर रहे थे. कह रहे थे उनकी पत्नी तुमसे ट्रिफल पुडिंग और कोफ्ते की रेसिपी जानना चाहती है. यह भी कहा कि मैंने उन्हें पहले क्यों नहीं बताया कि तुम इतनी अच्छी कुक हो? अरे यार, ख़ुद मुझे ही कहां पता था? एनी वे, तुम लोग फ्रेश होकर आओ, तब तक मैं चाय तैयार करता हूं.” विनय बेहद ख़ुशनुमा मूड में गुनगुनाते हुए रसोई की ओर बढ़ गए, तो तन्वी प्रशंसात्मक निगाहों से मुझे ताकने लगी. मैंने शरमाते हुए स्थिति स्पष्ट की.

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“दरअसल, विनय अपने बॉस और उनकी बीवी को डिनर पर होटल ले जाना चाहते थे. मैंने कहा घर पर ही बुला लो. अभी तक उन्होंने हमारा घर नहीं देखा है, तो वे मुझे आश्चर्य से देखने लगे थे. शायद सोच रहे थे कि रोज़ तो खाना मेड बनाती है. मैंने कहा दाल, चावल, चपाती उससे बनवा लेंगे और एक स्पेशल सब्ज़ी और डेजर्ट मैं बना लूंगी. बहुत डरते-डरते ही उन्होंने मेरी बात मानी थी. लेकिन उस दिन डिनर टेबल की सजावट और व्यंजनों का स्वाद चखकर, तो वे ख़ुद बेहोश होते-होते बचे थे. तब मैंने उन्हें बताया था कि मैंने कई कुकिंग कोर्सेज़ कर रखे हैं. मेहमानों के जाने के बाद उन्होंने दीवानों की तरह मेरे हाथ चूम लिए थे.” उन पलों को याद करते हुए मैं एक बार फिर अभिभूत हो उठी थी. अपनी आंखें पोंछते हुए मैंने तन्वी की ओर नज़रें उठाईं, तो उसे किसी गहरी सोच में डूबा पाया था.
एक झटके के साथ ट्रेन रुकी, तो मैं अतीत से वर्तमान में लौट आई. मेरा स्टेशन आ गया था. मैं नियत पते पर पहुंच गई. चूंकि तन्वी को गुज़रे चार-पांच रोज़ हो चुके थे, इसलिए काफ़ी रिश्तेदार तो विदा ले चुके थे. घर में रोना-धोना भी थम चुका था, पर एक मनहूसियत भरी चुप्पी चारों ओर पसरी हुई थी. मानो घर तन्वी की इस असमय विदाई के दुख से उबर नहीं पा रहा हो. ख़ुद मैं ही कहां उबर पा रही थी. घर का हर एक सदस्य बड़ी ही आत्मीयता से आकर मुझसे मिलने लगा. तन्वी के पति पवन मुझे बड़े ही समझदार और सुलझे हुए विचारों के लगे. उन्होंने पहले मेरे नहाने-धोने और खाने का प्रबंध किया. फिर सबकी कुशलक्षेम पूछी.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

संगीता माथुर

 

 

 

 

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Usha Gupta

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