कहानी- खुली किताब का बंद पन्ना… 5 (Story Series- Khuli Kitab Ka Band Panna 5)

“मां, संभालिए अपने आपको. याद है डॉक्टर ने क्या कहा था- रोएंगी तो आपका ऑपरेशन बेकार हो जाएगा. आपकी बहू की इच्छा अधूरी रह जाएगी?”

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. सब कुछ एक पहेली-सा लग रहा था. याद आया तन्वी ने कहा था उसकी सास देख नहीं सकती, पर ये तो देख रही हैं? मैं इसी उधेड़बुन में उलझी थी कि तभी पवन लौट आए.

 

 

 

… “तन्वी आपकी इतनी बातें करती थी कि लग ही नहीं रहा कि आपसे पहली बार मिल रहा हूं.”
“मैं ख़ुद भी आपसे यही कहना चाह रही थी. इस घर के हर कोने से, हर सदस्य से तन्वी मेरा इस कदर परिचय करवा चुकी है कि मुझे लग ही नहीं रहा मैं पहली बार आई हूं और आप लोगों से पहली बार मिल रही हूं, बस कमी है तो तन्वी की… उसने मुझसे इतनी बार अपने घर आने का आग्रह किया था… पर तब कहां सोचा था कि एक दिन इस तरह यहां आना होगा, वह भी उसकी अनुपस्थिति में…” मेरा गला रूंधने लगा था. पर मैं अंदर का सारा बाहर उड़ेलकर अपनी घुटन से मुक्त हो जाना चाहती थी.
“…विश्वास नहीं हो रहा कुछ हफ़्तों पहले की हंसती-गाती तन्वी अब हमारे बीच नहीं है. अचानक क्या हो गया था उसे? अच्छी-भली तो थी?” मेरे प्रश्न के जवाब में वे मुझे आश्चर्य से देखने लगे थे.
“क्या आपको मालूम नहीं कि तन्वी फेफड़ों की असाध्य बीमारी से पीड़ित थी?”
अब चौंकने की बारी मेरी थी.
“नहीं, उसने तो मुझसे कभी किसी बीमारी का ज़िक्र नहीं किया.”
“तन्वी के फेफड़े बड़े-बड़े छेदों से छलनी हो चुके थे. सभी डॉक्टर्स को दिखा चुके थे. सभी उपचार भी ले चुके थे. सबका एक ही मत था कि इस बीमारी को साथ लेकर ही जीना होगा और इसमें कोई मुश्किल भी नहीं थी. ज़रा-सी दवाइयां और समुचित आराम. शारीरिक और मानसिक दोनों ही तरह का श्रम उसके लिए घातक था, पर ज़िंदगी को थ्रिल की तरह लेनेवाली तन्वी के लिए ऐसी ज़िंदगी जीना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था. उसे तो किसी से अपनी इस बीमारी की चर्चा करना भी बुरा लगता था. वह लोगों की आंखों में अपने लिए सहानुभूति के भाव बर्दाश्त नहीं कर सकती थी, इसीलिए उसने आपसे भी अपनी बीमारी की बात छुपाई होगी.”
“हां शायद!” मुझे याद आने लगा, इसीलिए भीड़भाड़ में उसका दम घुटता था. तभी तन्वी की सास रोते हुए कमरे में आ गईं. शायद किसी ने उन्हें मेरे बारे में बताया होगा.

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“हाय मेरी बेटी सरीखी बहू! भगवान अच्छे लोगों को ही क्यों अपने पास बुला लेता है? इससे अच्छा होता मुझे उठा लेता.” वे दहाड़ें मारकर रोने लगीं, तो पवन उन्हें संभालते हुए बाहर ले गए.
“मां, संभालिए अपने आपको. याद है डॉक्टर ने क्या कहा था- रोएंगी तो आपका ऑपरेशन बेकार हो जाएगा. आपकी बहू की इच्छा अधूरी रह जाएगी?”
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. सब कुछ एक पहेली-सा लग रहा था. याद आया तन्वी ने कहा था उसकी सास देख नहीं सकती, पर ये तो देख रही हैं? मैं इसी उधेड़बुन में उलझी थी कि तभी पवन लौट आए.
“मां की आंखों का अभी-अभी ऑपरेशन हुआ है. तन्वी की आंखें उन्हें लगाई गई हैं. ऐसा तन्वी अपने नेत्रदान के संकल्पपत्र में लिखकर गई थी. उसने ऐसा कब किया हमें किसी को नहीं पता. वह तो अंतिम समय जब उसने अस्पताल में दम तोड़ा, तब उसकी डॉक्टर ने हमें यह दिखाया और फिर उसकी इच्छानुसार ही सब कार्यवाही संपन्न हुई. अभी कुछ समय पहले ही उसने यह शपथपत्र भरा था… शायद आपके यहां से लौटने के अगले दिन ही… पर घोर आश्चर्य किसी को कुछ बताया नहीं, जबकि मुझे वह छोटी से छोटी बात भी बताया करती थी… अं… आपको कुछ पता है?”
मैंने नहीं में गर्दन हिला दी. पर अंदर चल रहा आत्ममंथन चिल्ला-चिल्लाकर कहना चाह रहा था हां मैं जानती हूं उसने ऐसा क्यों किया? मेरे अंदर की उथल-पुथल और भावनाओं के संवेग से सर्वथा अनजान पवन अपनी ही रौ में बोले जा रहे थे, “पूरी ज़िंदगी वह मेरे सम्मुख खुली किताब बनी रही. पता नहीं अंत समय ही यह एक पन्ना क्यों बंद रखा? अब तक तो मैं उस खुली किताब से बेपनाह मुहब्बत ही करता था, पर अब इस बंद पन्ने को जान लेने के बाद तो उसके प्रति श्रद्धा भी रखने लगा हूं.”
मेरी अब तक रोकी सिसकी आख़िरकार फूट पड़ी थी.

 

संगीता माथुर

 

 

 

 

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Usha Gupta

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