सुनीता उत्तेजित हो गई, तो अनुभा शान्ति से बोली, “पुरुषों की मुक्ति और बंधन के अमूमन कोई मायने होते है क्या? अब कल्पना की बात लो, तो उसने आंटी को साथ न रखने की एवज में घर छोड़ने की धमकी दी, जो काम भी कर गई, पर एक पल को ज़रा सोचो यही धमकी गिरीश ने अपने माता-पिता के लिए दी होती, तो क्या गज़ब का कोहराम मचता… नारी अत्याचार का भयंकर मुद्दा बनता.”
“तो क्या मैं अपनी मां को अपने साथ रखने का कोई दबाव न बनाऊं गिरीश पर…”
“बिल्कुल बनाओ… तुम्हारी मां है. तुम्हारा कर्तव्य है उन्हें रखना, लेकिन अपने सास-ससुर को भी कर्तव्य के तहत मान दो न…”
अनुभा की तल्ख़ टिप्पणी पर कुछ पल के लिए सब चुप हो गए. कुछ दिनों पहले कल्पना ने अपने सास-ससुर के जाने पर बेइंतिहा ख़ुशी ज़हिर करते हुए राहत की सांस ली थी. मौक़े की नज़ाकत भांपते हुए सुधा बोली, “अरे छोड़ो, ये सब तो चलता रहता है. सच पूछो तो सास-बहू के बीच नोकझोंक, खट्टे-मीठे क़स्से हमारा टाइमपास है. हम ऐसा करते है, तो हमारी सास भी ऐसा ही करती है… उन्हें भी हमारी चुगली किए बगैर चैन कहां…”
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“वही तो मुद्दा है कि ऐसा क्यों है… कोई मां अपनी बेटी की बुराई करती नहीं दिखती… कोई बेटी अपनी मां की शिकायतें करती नहीं फिरती… बहू बेटी क्यों नहीं और सास मां क्यों नहीं बनती..?”
“नहीं बन सकती भई… हां कुछ अपवादों को छोड़कर… अभी तुम्ही ने कहा कि पूरी चेन गड़बड़ है.” सुधा ने इस उलझे अध्याय को बंद करने की चेष्टा की, पर अनुभा कहां माननेवाली थी.
“अपवादों से क्यों नहीं सीखते… गड़बड़ चेन को सुधारने में क्या हमारी कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए… क्या हम अपनी बहुओं को बेटी-सा मान देकर इस बिगड़ी व्यवस्था को दुरुस्त नहीं कर सकते?”
“अनुभा, ये सब कहना आसान है, पर बेटियों की जगह बहुएं कभी नहीं ले सकतीं.” नई-नई सास बनी उर्वशी के कहने पर अनुभा हंसी, “लो, चित भी मेरी और पट भी… ये तो फिर ढाक के वही तीन पातवाली बात हुई… बेटियों की जगह बहुएं नहीं ले सकती है और मां की जगह सास नहीं ले सकती, क्योंकि सबके अपने-अपने कारण हैं… उन्हीं कारण का निवारण ही तो करना है. यही तो चैलेंज है कि बेटियों का कोमल मन कुछ चुनी हुई भूमिकाओं में ही कोमल न रहे. मां पर भरपूर विश्वास और सास पर तनिक संदेह, बस इसी भेद को तो मिटाकर तालमेल बैठाना है.”
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सुनीता कुछ विचलित होते हुए बोली, “कुछ भी कह लो… अपने माता-पिता की बात अलग है. फिर जब हस्बैंड अपने माता-पिता की चिंता करते हैं, तो हम क्यों न करें…”
मीनू त्रिपाठी
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