कहानी- लम्हे 4 (Story Series- Lamhe 4)

उसकी आवाज़ पनीली थी, जो अंदर तक बेध गई. मैंने पलकें उठाईं. उसकी आंखों में प्रेम का निःशब्द आकाश फैला था, जिसकी सीमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया जा सकता था. उस रात तो मैं अपनी धुन में थी, पर आज महसूस किया कि उसने ही मेरे दिल के तालों को नहीं खोला, मैं भी उसके मन की बावड़ी में बहुत गहरे उतर गई हूं. हम जब तक देख सके, एक-दूसरे की आंखों में देखते रहे.

मन के जिन दरवाज़ों को अभिजात को आमंत्रित करने के लिए कितनी बार सायास खोलना चाहा, पर नहीं खुले, वो आज एक हल्के से झोंके से कैसे खुल गए?’ वो एक बार फिर मेरे चेहरे के भावों को पढ़कर सहेजने में लग गया.

“हर इंसान अपने तटों के बीच अकेली बहती एक नदी ही है. अब मुझे ही लीजिए. शादी के बाद कुछ सालों तक मेरी पत्नी मुझे मेरी जॉब छोड़कर किसी बड़े शहर में जॉब ढूंढ़ने के लिए प्रेरित करती रही. जब उसे समझ में आ गया कि ये संभव नहीं होगा, तो बच्चों की पढ़ाई के बहाने अपने मायकेवाले शहर में शिफ्ट हो गई.”

उसके बाद बहुत देर ख़ामोशी मुखर रही, फिर धीरे-धीरे ख़ामोश होने लगी. मुझे लगा मेरी पलकें झपने लगी हैं.

पंछियों के उन्मुक्त कलरव से नींद खुली, तो लगा मुद्दतों से सो रही हूं. ताज़ी धूप मेरे रोम-रोम को दुलरा रही थी. सामने गुलाबी, बैंगनी और भी जाने कितने रंगों से सजे आकाश का विस्तार था. नहीं था तो बादल का एक भी कतरा. कुछ गिलहरियां खिड़की के बगलवाली लता पर उछल-कूद मचाते हुए मुझे कुतूहल से देख रही थीं. घाटी में छोटी नवजात किरणों का वर्चस्व था और लग रहा था पेड़ नहा-धोकर घूमने के लिए तैयार खड़े हैं. दिमाग़ से ये सूचना ग्रहण करने में समय लगा कि मैं कहां हूं. ध्यान आते ही हड़बड़ाई हुई नज़र सामनेवाले सोफे पर गई. वो वैसे ही बैठा था. एकटक मेरी ओर निहारते हुए. मुझे संकोच हो आया, तो उसने उसी सम्मोहक मुस्कान के साथ दो मधुसिक्त शब्द परोस दिए, “गुड मॉर्निंग!”

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“गुड मॉर्निंग, आप सोए नहीं?”

“सोता तो रोज़ हूं. आज आपको देख रहा था. डर था कि कहीं ऐसा न हो कि पंत या प्रसाद की नायिका की तरह आप गायब हो जाएं और सुबह उठकर मुझे मानना पड़े कि मैंने एक ख़ूबसूरत ख़्वाब देखा था.” मैंने नव परिणीता-सी पलकें झुका लीं.

एक हफ़्ते बाद ही मेरी उस शहर से बिदाई थी. उस दिन के बाद से जो कुछ बोला, ख़ामोशी ने ही बोला था. शब्दों में तो इतना सामर्थ्य था नहीं. लौटनेवाले दिन वो मुझे बस स्टॉप तक छोड़ने आया. दोनों की आंखें रह-रहकर एक-दूसरे में अनकहा सच जी रही थीं, फिर उस सच से डरकर हट जातीं थीं. रास्ते कितने भी संवेदनशील हों, नदी उनके साथ रुक नहीं सकती. तटों में बंधी नदी की नियति तो बस बहते जाना है. तटों से ही उसकी पहचान है, तट ही उसका पिंजरा, तभी तो उसे ‘तटिनी’ भी कहते हैं. अगर नियति से लड़ सकती तो… मैं बोलना चाहती थी, लेकिन मन में घुमड़ते भावों को शब्दों में न ढाल पाने की बेबसी मेरी आंखों में समंदर बनकर लहराने लगी.

“आपने मेरी बहुत सहायता की है…” मुंह से बस इतना निकला.

“एक सहायता आप भी करेंगी?” वो आगे बढ़ आया और उंगलियों की कोर में मेरे आंसू ले लिए. मेरी आंखों में उत्सुकता उभर आई. “एक वादा कर लीजिए. ख़ुद को कभी उदास मत होने दीजिएगा. याद रखिए, अपने तटों को ख़ुद परिभाषित करना नदी का अधिकार है.” कहते हुए उसने मेरे हाथ में एक गिफ्ट थमा दिया, “अगर जीवन में कभी भी मेरी ज़रूरत हो, तो बस याद कीजिएगा. मुझे अपने साथ पाएंगी. ये गिफ्ट नहीं, अनुरोध है. अपनी वेदनाओं को शब्द देने का. एक दिन मैं आपकी किताब में वो सब कुछ पढ़ना चाहता हूं जो…”

उसकी आवाज़ पनीली थी, जो अंदर तक बेध गई. मैंने पलकें उठाईं. उसकी आंखों में प्रेम का निःशब्द आकाश फैला था, जिसकी सीमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया जा सकता था. उस रात तो मैं अपनी धुन में थी, पर आज महसूस किया कि उसने ही मेरे दिल के तालों को नहीं खोला, मैं भी उसके मन की बावड़ी में बहुत गहरे उतर गई हूं. हम जब तक देख सके, एक-दूसरे की आंखों में देखते रहे. मैंने गिफ्ट खोला. उसमें कुछ प्रकाशकों के पते, एक डायरी और एक पेन था.

कहते हैं, समय बहुआयामी होता है. वो चंद ख़ूबसूरत लम्हे मेरी पूरी ज़िंदगी में फैल गए. जाने क्या पाया था, पर मैं सचमुच जब उदास होती, तब वो डायरी और पेन लेकर बैठ जाती. उसके प्यार की ख़ुशबू महसूस करती. ख़ुद को सहेजे जाने का, सम्मानित होने का एहसास जीती. उससे

बतियाते-बतियाते मेरी पहचान अभिजात की पत्नी से बदलकर लेखिका की हो गई थी.

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मेरे तटों को मिला सम्मान मन में ख़ुशियां परोसने लगा था. ‘तटिनी- एक नदी की आत्मकथा’ आज मेरे उपन्यास का विमोचन था. अभिजात ने इसके लिए किसी बड़े आदमी का इंतज़ाम किया था और मैंने समर्पण के पृष्ठ पर लिखा था- ‘नदी को प्यार करनेवाले एक पर्यावरणविद् को समर्पित.’  उसका नाम लिखने की हिम्मत अभी भी नहीं आई थी, पर इतनी हिम्मत ज़रूर कर ली थी कि उसे फोन किया था, “पहला उपन्यास तुम्हें समर्पित किया है, पढ़ना ज़रूर.”

 

भावना प्रकाश

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