कहानी- मुक्ति 5 (Story Series- Mukti 5)

मौत सिरहाने खड़ी है, इसीलिए मैं अपनी कमियों का विश्लेषण बहुत ईमानदारी से कर पा रही हूं. मैंने कहीं पढ़ा था, इस संसार रुपी नाट्यशाला में नियति हर इंसान का क़िरदार निर्धारित करती है, किंतु उस क़िरदार को संवारना और निखारना हमारा कर्तव्य है. मैं अपने क़िरदार को नहीं संवार पाई, फिर किस बात की नाराज़गी और शिकवा-शिकायत? हृदय में इस स्वीकार्य भाव के आते ही क्षमा साधना का भाव स्वतः जाग्रत हो रहा है.

 

… ‘‘आपका बाकी सामान?” आन्या के पूछने पर स्टेसी मुस्कुराई थी, ‘‘बस ये दो बैग ही हमारे पास हैं. यात्रा का आनंद हल्का होकर चलने में है, बोझा लादकर नहीं.’’ इस समय उसकी कही बात में मुझे जीवन दर्शन नज़र आ रहा है. मुझे भी तो अब पार की यात्रा पर निकलना है, फिर मैं क्यों अतीत का बोझा सिर पर लादे घसीट रही हूं? क्यों नहीं उतार फेंकती शिकवे-शिकायतों के इस बोझ को जिसकी वजह से ऊपर से शांत दिखते हुए भी निराशा, वेदना और मानसिक अंतर्द्वंद्व का एक लंबा सफ़र तय किया है मैंने.
आज अगर साफ़गोई से काम लूं, तो इस बात से इंकार नहीं मुझे कि अपनी परिस्थितियों के लिए इंसान स्वयं ज़िम्मेदार होता है. हर इंसान को अपने आत्मसम्मान और अस्तित्व की लड़ाई स्वयं लड़नी पड़ती है. तमाम उम्र अनुराग के जिस एटीट्यूड के लिए मैं उन्हें दोष देती रही, क्या उसके लिए अकेले अनुराग ही ज़िम्मेदार हैं. नहीं, मेरा दब्बू स्वभाव और कमज़ोर व्यक्तित्व भी इसके लिए बराबर का दोषी है, क्योंकि ग़लत व्यवहार सहनेवाला भी उतना ही क़ुसूरवार होता है, जितना ग़लत करनेवाला.
यह तो संसार का नियम है कि घर हो या बाहर, कमज़ोर इंसान को हर कोई दबा लेता है. प्रारंभ से ही अनुराग के दुर्व्यवहार का मैंने कड़े शब्दों में विरोध किया होता, तो हो सकता है, परिस्थितियां भिन्न होतीं. बच्चों के कहने के बावजूद मैं कभी अनुराग के ख़िलाफ़ नहीं बोली. सदैव उनसे डरती रही, जिसका उन्होंने भरपूर फ़ायदा उठाया.
मौत सिरहाने खड़ी है, इसीलिए मैं अपनी कमियों का विश्लेषण बहुत ईमानदारी से कर पा रही हूं. मैंने कहीं पढ़ा था, इस संसार रुपी नाट्यशाला में नियति हर इंसान का क़िरदार निर्धारित करती है, किंतु उस क़िरदार को संवारना और निखारना हमारा कर्तव्य है. मैं अपने क़िरदार को नहीं संवार पाई, फिर किस बात की नाराज़गी और शिकवा-शिकायत? हृदय में इस स्वीकार्य भाव के आते ही क्षमा साधना का भाव स्वतः जाग्रत हो रहा है.
वर्षों से मन पर पड़ा बोझ स्वतः हट रहा है. अपनी ग़लती को खुले मन से स्वीकार करते ही अनुराग के प्रति समस्त क्षोभ और शिकायतें न जाने कहां विलुप्त होती जा रही हैं. मन की सारी उलझनों, शिकायतों से मुक्त होकर कितना हल्कापन महसूस कर रही हूं मैं. अथाह शांति का अनुभव कर रही हूं मैं. मोह-माया और लेन-देन के चक्र से बाहर निकलकर अनासक्ति की ओर बढ़ रही हूं.

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सुबह हुई तो अनुराग ने मेरा हाथ थाम रुंधे स्वर में कहा, ‘‘संध्या, मुझे क्षमा कर दो. कोई सुख नहीं दिया मैंने तुम्हें. सदैव तिरस्कार ही किया तुम्हारा.’’ उनकी आंखों से पश्चाताप के आंसू निकलकर मेरा हाथ भिगो रहे हैं. कोई और समय होता तो मैं प्रतिक्रिया व्यक्त भी करती, लेकिन अब… अब तो इन सभी बातों से ऊपर उठ चुकी हूं मैं. संसार की नश्वरता का एहसास उत्पन्न हो रहा है. कोई इच्छा नहीं, कामना नहीं. न किसी सुख का एहसास है, न ही दुख और पीड़ा की अनुभूति. इन सभी भावों के पार एक गहन शांति की ओर बढ़ रही हूं मैं.
धीरे – धीरे अंतर्मन में पापा का चेहरा उभर रहा है. आज समझ में आ रहा है कि जाते हए पापा किस मनःस्थिति में थे. हर विचार और हर भाव से वह मुक्त हो चुके थे.

रेनू मंडल

 

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