… सोहनी का मत प्रबल है, ‘‘जूही, तुमने वह सब देखा नहीं है. बड़ा माहौल बनता था. नचइया-गबइया औरतों का रुतबा होता था. लेकिन वह माहौल अब क्या बनेगा? शादी जबलपुर जाकर करोगे.’’
रोहिणी आश्वस्त है, ‘‘अच्छी बात है न. बारातियों की जी हुजूरी नहीं करनी पड़ेगी, वरना हर बारात में दो-चार विघ्नसंतोषी होते हैं. सोहनी, तुम्हें याद है मेरी शादी में किसी ने हल्ला मचा दिया था खाना ख़त्म हो गया है. बाराती दंगल करने लगे- हमें भूखा मारने के लिए बुलाया है? बाबूजी ने हाथ-गोड़ जोड़ कर अफ़वाह शांत की कि खाना भरपूर है. सुलह होने में वक़्त लग गया था.’’
‘‘मेरी शादी में क्या कम नौटंकी हुई थी रोहिणी? सुनो जूही, मेरे बड़े नंदोई ऐसे धुर देहाती हैं कि देख लो तो हंसी छूट जाए. उनके पैर नउआ ने धोए. नंदोई कूदने लगे असल बाम्हन नहीं हो का? जानते नहीं दूल्हे के जीजा के पैर लड़की के बाप-भाई पखारते हैं? बाबूजी ने उनके चीकट पैर धोए, फिर भी वह जड़ आदमी कड़वा बोल कर माहौल बिगाड़ता रहा.’’
जूही आनंद ले रही है.
“मोहिनी मौसी की शादी में भी कुछ वारदात हुई थी या सब ठीक रहा?’’
रोहिणी ने ब्योरेवार बखान किया, ‘‘वारदात हुई थी. बाराती कितने आएंगे इस बात पर सामंजस्य नहीं बैठ रहा था. बाबूजी कहते डेढ़ सौ का प्रबंध कर पाएंगे. मोहिनी के ससुर कहते तीन सौ से एक कम न होगा. हम सरपंच हैं. मतदाताओं को नाराज़ नहीं कर सकते. दो सौ पर समझौता हुआ. तीन सौ आए. बाराती चैगान में समा नहीं रहे थे. मेरी शादी में नहीं, पर मोहिनी की शादी में खाना सचमुच ख़त्म हो गया. किसी घराती ने, “शिवजी की बारात लाओगे, तो खाना कम पड़ेगा ही…” कह कर कटुता पैदा कर दी. सरपंच रिसा कर जनवास में जा बैठे. बाबूजी ने प्रणामी मुद्रा बनाकर आराधना किया, तब सरपंच का मस्तक ठंडा हुआ.’’
सोहनी की आंखें भर आईं, ‘‘हम बहनों के कारण बाबूजी ने अपमान सहा. पैसा था नहीं. हर कोई अपमानित करता रहा.’’
रोहिणी द्रोह पर उतरी, ‘‘पैसा नहीं था, लेकिन सिद्धांत भारी थे. परंपराओं को नहीं छोड़ना है. अपने से छोटे ब्राह्मण को लड़की नहीं देना है. ऊंचे ब्राह्मण कुल में लड़की को अभाव रहे, पर समाज में नाक ऊंची रहनी चाहिए. सोचती हूं जातिगत धारणाएं इतनी पुख्ता क्यों रहीं कि अभाव मंज़ूर पर जाति और श्रेणी को लेकर समझौता नहीं करना है. अपमान सहो, कर्ज़ लो, ज़मीन बेचो, लड़की कुपात्र को दो, पर ब्राह्मण ऊंचा होना चाहिए. बाबूजी छाती फुला कर कहते रहे कि हमने तीनों बेटियों को उरमलिया ब्राह्मण के घर ब्याहा है. सोहनी तुम्हारे लिए ही…”
जीजाजी को कदाचित नींद नहीं आ रही है. अपने कमरे की बत्ती जला कर मानो उन्होंने सभा भंग कर दी. आहट पर रोहिणी की एकाग्रता टूटी, “एक बज रहा है. सोना नहीं है? चलो आज दोनों बहनें एक साथ सोएंगे.’’
थकी रोहिणी सो गई. सोहनी को अपरिचित बिछावन में नींद नहीं आ रही है. अंतस में कोई दस्तक दे रहा है- समय बदल गया. अवधारणाएं बदल गईं. प्रविधियां बदल गईं. लड़के नेट पर प्रस्ताव भेज रहे हैं. लड़कियां रुचि ले रही हैं. अभिभावक मान्यता दे रहे हैं. एक वह समय था, गांव, कस्बे, छोटे शहरों में आज भी है लड़केवाले यदि डायरेक्ट-इनडायरेक्ट प्रस्ताव दें, तो उन्हें दोषपूर्ण समझा जाता है. बाबूजी के स्कूल के संगीत अध्यापक शर्माजी, बाबूजी से बोले थे, ‘‘मेरा बेटा नृप आपका देखा-भाला है. थानेदार हो गया है. सोहनी हमें चाहिए.”
सुषमा मुनीन्द्र
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