कहानी- सिर्फ़ एहसास है ये…4 (Story Series- Sirf Ehsaas Hai Ye… 4)

“तुम मेरी रूह की हमसफ़र हो, तुम मस्तिष्क से मेरी समवयस्क भी हो, और ये भी सच है कि मैं तुम्हें वो जीवन देना चाहता हूं, जो तुम्हारा सपना है. जो कुछ भी मैं तुम्हारे लिए महसूस करता हूं, वो भी प्यार का ही एक रूप है, लेकिन…”

“बस और किसी लेकिन की गुंजाइश अब हमारे बीच नहीं है.” मैंने उनके होंठों पर उंगली रख दी फिर नवोदित पुष्पों की लता-सी उनसे लिपट गई.

हम कहवा और भुने मेवे लेकर लॉबी में बैठे थे. नीचे बर्फ की सफ़ेद कालीन थी और ऊपर सतरंगी स्वप्निल आकाश. आख़िर मेरे दिल ने बगावत कर दी और ज़ुबान को उसकी बात माननी पड़ी.
… उन पर जैसे सन्निपात हो गया.
“तुम्हारे पिता का दोस्त हूं मैं, उनका समवयस्क.” वो चीखे.
“और मेरी रूह के समवयस्क, मेरे हमसफ़र. ” मेरा जवाब सुनकर वो अपना हाथ सिर पर रखकर धम्म से ज़मीन पर बैठ गए.
… मैं भी उनके पास ज़मीन पर ही बैठ गई और उनकी आंखों में देखने की कोशिश की.
“देखो बच्चे…”
“बच्ची नहीं हूं मैं. बाइस साल की युवती हूं. बाइस साल की.” मैं तनकर बोली.
“और मैं बावन वर्ष का वृद्ध.” वो उठ खड़े हुए.
“वृद्ध और वो? जो एक युवती को बांहों में उठाकर पहाड़ी रास्तों पर चल सकता हो?” मैं भी खड़ी हो गई और अपनी प्रणय निवेदित आंखें सीधी उनकी आंखों में डाल दीं.
“क्या आप मुझे अपना सच्चा साथी महसूस नहीं करते? क्या आप से अधिक कोई इस दुनिया में मुझे समझ सकता है? क्या मुझसे अधिक कोई आपको समझ सकता है? आप मेरे सिर पर हाथ रखकर कह दीजिए कि आप मुझसे प्यार नहीं करते. जीवन की पथरीली राहों में हर कदम मेरे साथ नहीं चलना चाहते.” उन्होंने मेरा हाथ झटक दिया और नज़रें फेर लीं. मैं उनकी आंखों के ठीक सामने खड़ी हो गई, तो उन्हें देखती ही रह गई. उन आंखों में भोर का सतरंगी आकाश था या रहस्यमई ब्लैक-होल्स से भरा पूरा ब्रह्मांड. प्रेम का पारदर्शी अविरल झरना था या कुदरत के अनबूझे अजूबों को अपनी गहराइयों में छिपाए पूरा सागर. पता नहीं, पर इतना ज़रूर पता था कि ये ईमानदार आंखें बहुत मजबूरी में हैं. मस्तिष्क की
जंज़ीरों से जकड़ी. प्रेम की कविता का एक पृष्ठ दुनियादारी के उपन्यास की भारी पुस्तक के नीचे दबा है, तेज़ हवाओं में उसका कोई कोना बड़ी तड़प के साथ फड़फड़ा रहा है…
मुझसे ये वेदना, ये बेचैनी देखी न गई.
“दोस्त!” मैंने इस छोटे से संबोधन में अपनी सारी मनुहार, अपना सारा दर्द उड़ेल दिया. आंसू पलकों की मेड़ तोड़कर गालों पर ढुलक आए. आवाज़ रुंध गई.
उन्होंने हल्के से इनकार में सिर हिलाते हुए दोनों हाथों में मेरा चेहरा ले लिया.
“तुम मेरी रूह की हमसफ़र हो, तुम मस्तिष्क से मेरी समवयस्क भी हो, और ये भी सच है कि मैं तुम्हें वो जीवन देना चाहता हूं, जो तुम्हारा सपना है. जो कुछ भी मैं तुम्हारे लिए महसूस करता हूं, वो भी प्यार का ही एक रूप है, लेकिन…”
“बस और किसी लेकिन की गुंजाइश अब हमारे बीच नहीं है.” मैंने उनके होंठों पर उंगली रख दी फिर नवोदित पुष्पों की लता-सी उनसे लिपट गई.
… उनकी बांहों का झिझकता-सा घेरा हल्का-सा मेरे गिर्द कसा, हाथ ने सिर और कंधों को हौले से सहलाया भी. आज भी वो स्पंदन ऐसे याद है जैसे कल की ही बात हो… फिर जैसे सचेत होकर मेरे कंधे ख़ुद से दूर करने को पकड़ लिए. उनकी बांहों का ख़ुद से दूर होने का आग्रह जितना बढ़ता गया, मैं उनसे उतनी ही ताकत से लिपटती गई. … आख़िर उन्होंने मुझे ख़ुद से खींचकर अलग किया और एक थप्पड़- ‘तड़ाक’

यह भी पढ़ें: रिसर्च- क्या वाकई स्त्री-पुरुष का मस्तिष्क अलग होता है? (Research- Is The Mind Of A Man And Woman Different?)

मैं स्तब्ध रह गई. मेरी आंखों में वेदना का समंदर उतर आया. कुछ देर सदमेग्रस्त-सी खड़ी रही जैसे चेतना खो दी हो, फिर बेतहाशा रो पड़ी. रोते-रोते ही बैठ गई और घुटनों में सिर देकर रोती ही गई…
तभी मम्मी-पापा आ गए. मुझे होश तो तब आया, जब मैंने देखा पापा उन्हें बेतरह पीटे जा रहें हैं. वो तब तक ख़ामोशी से पिटते रहे, जब तक मैं चीखकर बीच में नहीं आ गई.
… मुझसे किसी ने कुछ नहीं कहा. कहा तो एक-दूसरे से, “गलती हमारी है, हम उसके दोस्त कभी नहीं बन सके. बहुत अकेली हो गई थी वो.” और इन सबसे बढ़कर वो! वो भी? उन्होंने भी मुझसे कुछ नहीं कहा. कहा तो पापा से.
“सॉरी…” एक छोटा-सा शब्द या ख़ामोशी के बड़े से कैनवास पर उकेरा गया एक संपूर्ण उपन्यास? कैसे सिर झुकाए रक्तिम चेहरा लिए हाथ जोड़े अपराधी की तरह पापा के सामने बैठे रहे थे. वापस जाकर मुझे एक लंबा-चौड़ा खत लिखा. बहुत सारी आश्चर्यजनक जानकारियों से भरा, अब की घटी घटनाओं को पूरी तरह उपेक्षित करते हुए…

 

भावना प्रकाश

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Usha Gupta

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