कहानी- उनसठ बरस का कुंवारा बसंत… 4 (Story Series- Unasath Baras Ka Kunwara Basant… 4)

चाय ख़त्म कर मीरा जब नहाने जाने लगी, तो हाथ अनायास एक ख़ुश रंग साड़ी की ओर बढ़ गया, जिस पर खिले-खिले फूल बने थे. चोटी बनाने बैठी, तो हाथ अपने आप ही बिखरी लटों को संवारने लगे. इस बार घरेलू सामान में एक ब्यूटी क्रीम और मॉश्चराइज़र भी जुड़ गया. अब व्यवस्थित रहना ख़ुद को ही अच्छा लगने लगा. वर्षो से बंद पड़ा रेडियो श्रीनाथजी से ही कह कर ठीक करवाया और सुबह रसोईघर में पुराने गानों की मीठी धुन के साथ कुछ अच्छा पकने लगा.

 

 

 

… कभी श्रीनाथजी की बाई ना आने पर मीरा उन्हें रात के खाने पर रोक लेती या कभी वह अपने घर पर मीरा का भी खाना बनवा लेते. अब तो मीरा का पढ़ने में और भी मन लगने लगा था. वह गंभीरता से पढ़ते हुए चर्चा के बिंदु याद रखती थी. चर्चा के बीच जब मीरा की बौद्धिक क्षमता की श्रीनाथजी प्रशंसा करते, तो मीरा का मन उत्साह से भर जाता.
एक दिन श्रीनाथजी ने आकर बताया कि शहर में पुस्तक मेला लगा है. मीरा ख़ुश हो गई. दोनों वहां पहुंचे. मीरा को लगा जैसे वह किताबों के महासागर में आ गई है. सैकड़ों लेखकों की हज़ारों किताबें थी वहां. मीरा कभी एक शेल्फ की ओर जाती, तो कभी दूसरे. जीवन में पहली बार उसने मनचाही, ढेर सारी किताबें ख़रीदी. उसने और श्रीनाथजी ने अलग-अलग किताबें ख़रीदी, ताकि अदल-बदल कर पढ़ सकें.
श्रीनाथजी की हर विषय पर सूक्ष्म पकड़ थी. स्त्री मन की अनछुई भावनाओं पर तो उन्हें जैसे महारत हासिल थी. स्त्री की मनोदशा और परिस्थितिजन्य व्यवहार को भी बड़ी गहराई से समझते थे. इतना सब होने पर भी उनका व्यवहार इतना गंभीर और परिपक्व तथा मर्यादित रहता कि मीरा उनके साथ बहुत ही सहज और आश्वस्त अनुभव करने लगती.
एक सुबह मीरा चाय का कप लेकर गैलरी में खड़ी थी कि देखा नीचे परिसर में श्रीनाथजी बैडमिंटन खेल रहे थे. युवाओंवाला जोश और फुर्ती थी उनमें. उत्साह-उमंग से भरा ज़िंदादिल व्यक्तित्व था उनका. जीवन को भरपूर जीना आता था उनको. उनकी खिलखिलाहटों को सुनते हुए मीरा के मन में फिर एक कसक उठी ‘काश प्रकाश भी ऐसे ज़िंदादिल होते, तो जीवन का आनंद ही कुछ और होता’… प्रकाश के शुष्क नीरस व्यक्तित्व ने संपूर्ण जीवन यात्रा को ही शुष्क, रूखा, मुरझाया हुआ बना डाला था. ताज़गी विहीन जीवन बस चलती सांसों का नाम रह गया था. रस तो उसमें कभी रहा ही नहीं.

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चाय ख़त्म कर मीरा जब नहाने जाने लगी, तो हाथ अनायास एक ख़ुश रंग साड़ी की ओर बढ़ गया, जिस पर खिले-खिले फूल बने थे. चोटी बनाने बैठी, तो हाथ अपने आप ही बिखरी लटों को संवारने लगे. इस बार घरेलू सामान में एक ब्यूटी क्रीम और मॉश्चराइज़र भी जुड़ गया. अब व्यवस्थित रहना ख़ुद को ही अच्छा लगने लगा. वर्षो से बंद पड़ा रेडियो श्रीनाथजी से ही कह कर ठीक करवाया और सुबह रसोईघर में पुराने गानों की मीठी धुन के साथ कुछ अच्छा पकने लगा. रेडियो के साथ ही मीरा भी गुनगुना लेती. चादर, सोफे के कवर भी ख़ुशनुमा रंगों में सजने लगे. ज़िंदगी जैसे उबाऊ अंधेरे से खुली-खुली हवादार भोर के उजाले में पहुंच गई थी.
एक दिन श्रीनाथजी आए, तो हाथ में एक छोटा-सा पैकेट थमा दिया.
“यह क्या है?” उत्सुकता से पूछते हुए मीरा ने पैकेट खोला, तो उसमें ढेर सारे कढ़ाई के धागे थे. हरे, नीले, पीले, गुलाबी, नारंगी. कितने सारे रंग थे, “यह किसलिए?” मीरा ने अचकचाकर पूछा.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

डॉ. विनीता राहुरीकर

 

 

 

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