कहानी- विजय-यात्रा 2 (Story Series- Vijay-Yatra 2)

एक वो जिन्हें मेरी सेवा पर गर्व था और कहते थे जाने दो, बहुत कर चुकीं तुम और दूसरे वो जिन्हें मेरे अनाड़ीपन से शिकायत थी, उनकी नसीहतें और मज़ाक मेरे दिमाग़ में वैसे ही भरते जा रहे थे, जैसे पॉलीथीन में कूड़ा. मेरे अपने भी नहीं समझ पा रहे थे कि पुस्तक भले ही दादी की थी, पर ठगे जाने की पीड़ा, खीझ मेरी अपनी थी. मैं बस फटने ही वाली थी.

 

 

 

 

… दादी बहुत ख़ुश थीं और उनसे ज़्यादा ख़ुश थे हम सब सोशल मीडिया पर एक समूह में जुड़े उनके बच्चे, क्योंकि हमने पहली बार उन्हें कुछ चाहते देखा था. ‘पहचान’ मिलने का सुख वो खिलौना है, जो किसी भी उम्र की सबसे उत्कट अभिलाषा होता है, ये हमने उनकी प्रतीक्षा में देखा. सब प्रतिबद्ध थे कि पुस्तक आते ही उसे ख़रीदेंगे और प्रचार शुरू कर देंगे. हम सबको किसी भी अवसर पर कुछ

भी देने से सख्ती से मना करनेवाली दादी इस उपहार के लिए रोज़ मुझ पर आशीर्वादों और आभारों की वर्षा करने लगी थीं. जीवन से कोई अपेक्षा न रखनेवाली दादी सपने देखने लगी थीं. पर उनका उत्साह मेरे धोखा खाए जाने के डर को बढ़ाता जाता था. ये प्रतीक्षा अब इतनी लंबी हो गई थी कि निराशा में बदलने लगी थी.
मैं प्रकाशक को हर सेवा के लिए सैकड़ों बार याद दिलाते, हर सेवा की आख़िरी तारीख़ निकल जाने की शिकायत करते थक चुकी थी. तय समय सीमा से चार गुना समय लग चुका था. पुस्तक विमोचन की तारीख़ दो बार टल चुकी थी. बहुत सोच-समझकर बनाए गए क़रीब सौ मेल, हर स्तर के लोगों से दो-ढाई सौ फोन कॉल्स की जद्दोज़ेहद के बाद जब पुस्तक ऑनलाइन दिखाई दी, तो उसे ऑर्डर करने के हर्ष पर दाम देखकर तुषारापात हो गया. पुस्तक के दाम तय दाम से चार गुना रख दिए गए थे और पहुंचाए जाने का समय एक महीना. किस मुंह से प्रचार करेगा कोई जब मैं ही न दाम से सहमत थी, न समय को लेकर आश्वस्त.

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लेखक की प्रतियां भेजने की तारीख़ कब से अगले हफ़्ते थी और इन सबसे बढ़कर ये कि रॉयल्टी का प्रोसीज़र पूछते ही उन्हें कुछ काम याद आ जाता था और फोन काट दिया जाता था. पर इन सबसे बड़ी खीझ इस बात की थी कि उनके इतने बड़े समूह में हर उम्र और अच्छे पदों पर कार्यरत लोग दो ही तरह की बातें कर रहे थे. एक वो जिन्हें मेरी सेवा पर गर्व था और कहते थे जाने दो, बहुत कर चुकीं तुम और दूसरे वो जिन्हें मेरे अनाड़ीपन से शिकायत थी, उनकी नसीहतें और मज़ाक मेरे दिमाग़ में वैसे ही भरते जा रहे थे, जैसे पॉलीथीन में कूड़ा. मेरे अपने भी नहीं समझ पा रहे थे कि पुस्तक भले ही दादी की थी, पर ठगे जाने की पीड़ा, खीझ मेरी अपनी थी. मैं बस फटने ही वाली थी…
ड्राइवर की आवाज़ और हॉर्न के सम्मिलित शोर से मैं चौंककर वर्तमान में आई.
सुजाता गर्मजोशी से मिली, लेकिन उसका चेहरा सर्द था. बोली, “सुन, रोहन आया हुआ है और उसी ने ये गेट टुगेदर रखने को कहा है.”
“रोहन? कब आया? मुझे फोन नहीं किया?” मैं बेचैन हो उठी.
“हम उसका सामना कैसे करेंगे! कैसे सांत्वना देंगे!”

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

 

भावना प्रकाश

 

 

 

 

 

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Usha Gupta

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