वे थोड़ी देर रुके नम आंखों से मां को निहारा और बिना किसी से कुछ कहे वे चले गए. यहां तक कि भैया-भाभी से भी कोई बात नहीं की. मुझे उनका ये व्यवहार अत्यंत विचित्र और रहस्यमयी-सा लगा.
एक-एक करके सभी मेहमान जा रहे थे. भैया और भाभी दरवाज़े पर सभी मेहमानों का अभिवादन कर उन्हें विदा कर रहे थे. आज मां की तेरहवीं थी. मैं तो बस एक कोने में बैठ कर वहां रखी मां की तस्वीर को एकटक निहार रही थी. उन्हें और उनकी ममता को महसूस कर रही थी. पर मुझे कहीं-कहीं ये भी एहसास हो रहा था की मेरी दो आंखों के साथ-साथ कोई दो आंखें और भी हैं जो मां की तस्वीर को एकटक निहार रहीं थीं. वे भी बेहद अपनत्व से निहार रहीं थी. मेरी आंखें उनकी आंखों से टकरा रही थी, किंतु वे तो सिर्फ़ शिद्दत से मां को निहारने में लीन थे.
उनकी नम आंखें, मूक दृष्टि और भाषा बहुत कुछ रहस्यमयी-सी लग रही थी. मैं उन्हें पहली बार देख रही थी. ये सोच कर कि शायद भैया के कोई परिचित होंगे मैंने उनकी तरफ़ से अपना ध्यान हटाने का असफल प्रयास किया.
वे थोड़ी देर रुके नम आंखों से मां को निहारा और बिना किसी से कुछ कहे वे चले गए. यहां तक कि भैया-भाभी से भी कोई बात नहीं की. मुझे उनका ये व्यवहार अत्यंत विचित्र और रहस्यमयी-सा लगा. ऐसा लग रहा था मानो वे मन-ही-मन, आंखों ही आंखों में मां से बात करके चले गए.
“भैया ये जो सज्जन मां की तस्वीर के समक्ष खड़े उन्हें मूक श्रद्धांजली अर्पित कर रहे थे क्या आपके कोई परिचित थे? “ जिज्ञासावश मैंने भैया से पूछा.
“ नहीं… मैं तो ख़ुद उन्हें पहली बार देख रहा
हूं. ख़ैर छोड़ो होगा कोई जिसकी मां ने मदद की होगी. आख़िर हमारी दयालु मां भी तो दुनिया जहां की मदद करती थीं. आया होगा कोई उनको श्रद्धांजली देने. छोड़ उन्हें.“ संक्षिप्त-सा उत्तर देकर भैया अंदर अपने कमरे में चले गए.
पर मेरे मन-मस्तिष्क में वही रहस्यमय सज्जन घूम रहे थे. उनकी दर्द भरी मूक आंखों की मां की तस्वीर को निहारती भाषा में कुछ रहस्य भरी गूढ़ बात छिपी थी, जो शायद मैं नहीं समझ पा रही थी.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
कीर्ति जैन
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