… यह उन दिनों की बात है जब मैं बीपीएससी के परीक्षा की तैयारी कर रही थी. हमारा चार स्टूडेंट का ग्रुप था, जिसमें मेरे अलावा सुधा, भानु और प्रभात थे. हम चारों ने परीक्षा की तैयारी के लिए तुम से मदद मांगी थी. उन दिनों तुम पटना के एक जानेमाने काॅलेज में बाॅटनी पढ़ाते थे. आशा अनुरूप परीक्षा की तैयारी में तुमने हमारी बहुत मदद की थी. तुम्हारे नहीं रहने पर भी हम तुम्हारे घर के अंदर बैठे पढ़ते रहते और रामू काका हम सब को चाय पिलाते रहते. इसी दौरान मैं नहीं जानती किस क्षण, किस कौशल से तुमने मुझे बांध लिया था कि परीक्षा के बाद भी हम एक-दूसरे से मिले बगैर नहीं रह पाते थे.
हमारा मिलने का सबसे प्रिय जगह था दरभंगा हाउस की ऊंची सीढ़ियोंवाला घाट, जहां घंटों हम बैठे यहां-वहां की बातें करते रहते थे. यही पर तुमने अपने जीवन की कई गोपनीय बातें भी मुझे बताई थी. तुमने ही बताया था कि जब तुम बहुत छोटे थे तुम्हारे पापा ने संन्यास ले लिया था. वैसे कठिन समय में जब अपने रिश्तेदारों ने हाथ खींच लिया था तुम्हारे मां की अंतरंग सहेली शारदा मौसी ने तुम लोगों की बहुत मदद की थीं. उन्होंने तुम्हारी पढ़ाई में भी बहुत ख़र्च किया था, इसलिए इस दुनिया में तुम शारदा मौसा को ही एकमात्र अपना आत्मिय स्वजन मानते हो.
वही शारदा मौसी इन दिनों मुसीबत में आ गई थी, जब अचानक उनके पति की मृत्यु एक कार दुर्घटना में हो गई थी. अभी वे लोग इस दुख से उबरे भी नहीं थे कि एक नई मुसीबत आ गई थी. शारदा मौसी के हार्ट का वाल्व ठीक से काम नही कर रहा था. वह अपनी इकलौती बेटी संध्या के लिए बहुत परेशान थीं. उनकी परेशानी को देखते हुए तुम्हारी मां ने उन्हें संध्या को अपनी बहू बनाने का वचन दे दिया था. अब उनके वचन को तुम्हें पूरा करना है.
तुमने यह भी कहा था कि तुम जानते हो कि संध्या एक बहुत ही अच्छी लड़की है और तुम्हें बचपन से प्यार करती है. तुम भी इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि तुम उससे प्यार नहीं करते. वह है ही इतनी अच्छी कि सब उसे प्यार करते हैं.
न जाने क्यूं उस दिन तुम्हारे ज़ुबान से उसकी तारीफ़ सुन जलन-सी होने लगी थी. यूं ही आपस में सुख-दुख बांटते हुए तुम्हारी आंखों में मेरे लिए प्यार की भावना स्पष्ट दिखने लगी थी. बिना शब्दों के ही हम एक-दूसरे की बातें समझ लेते थे. हमें एक-दूसरे की आदत-सी हो गई थी. यह प्यार नहीं तो क्या था? फिर भी निर्णय लेना तुम्हारे लिए आसान नहीं था. जीवन में कभी-कभी आदमी को कुछ ऐसे फ़ैसले लेने ही पड़ते हैं, जो उसके वश में नहीं होता, जो उसके दिलो-दिमाग़ को सुन्न कर देता है. तुम कुछ वैसे ही दोराहे पर खड़े थे, जिससे चाह कर भी तुम कुछ भी नहीं बोल पा रहे थे.
आज भी मुझे अच्छी तरह याद है, मेरे बीपीएससी का रिजल्ट आया था. मेरा सिलेक्शन हो गया था. जब मैंने तुम्हे यह बात बताई, तुम खुशी के अतिरेक में खींच कर मुझे अपने सिने से लगा लिए थे. साथ ही मेरे चेहरे पर कई चुंबन जड़ दिए थे, जो मेरे दिल को सुकून दे रहा था. मुझे अपनी सफलता से ज़्यादा इस बात की ख़ुशी हुई थी कि तुम चाहे शब्दों से व्यक्त ना करो, पर तुम मुझे बेहद प्यार करते हो.
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स्पष्ट हो गया था कि दोनो तरफ़ आग बराबर लगी थी. उस दिन तुम तड़प उठे थे. अतीत के वचनों और प्यार से मुक्ति के लिए. तुमने कहा भी था, ‘‘क्यों हम कुर्बानियां देकर घुट घुट कर अपना जीवन जिए? सारे वचन जाए भाड़ में, कुर्बानियां देने के बदले क्यों न हम ख़ुद के लिए जीने की सोचे?’’
रीता कुमारी
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