क्यों ख़ामोश हो इस कदर
इन अधरों को खुलने दो
जो एहसास जगे है तुममें
उन्हें लबों पर आने दो
ख़ामोश निगाहें कुछ ढूंढ़ती
अनजान हवाएं कुछ पूंछती
अधजले उन चिराग़ों में
प्रेम का दीप जलाने दो
तुम बिन सपनों का मोल नहीं
मेरी बंदगी का कोई तोल नहीं
बस तुम ही हो मेरे अपने
ख़्वाबों के पर से नभ छूने दो
कनखियों से निगाहें टकराई
दिल में आहट ने ली अंगड़ाई
बस ढह गया जुनून मेरा
हिय मधुप परागी होने दो
है अनंत प्रवंचना राहों में
बहु वेदना बसी निगाहों में
दे दो अपने सब दर्द मुझे
उधड़े जज़्बात मुझे सीने दो
इस जहां ने ऐसा पहरा डाला
जीवन का ऐसा दिया हवाला
जज़्बात उमड़ रहे गए हिय में
संंग ख़ामोशियों के मुझे जीने दो…
– सुनीता मुखर्जी
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