वैसे तो हर सुबह गृहिणी द्वारा घर-घर में साफ़-सफ़ाई की परंपरा का निर्वहन हो रहा है, पर जब दिवाली की सफ़ाई की बात हो, तो गृहस्वामी को भी सफ़ाई कार्य में झाडू लिए सावधान की स्थिति में पत्नी के सामने खड़ा हो उसके निर्दोशानुसार सफ़ाई कार्य में जूझना होता है.
दिवाली के आते ही मेरी स्थिति भी ऐसी ही बन गई. कुछ दिन रह गए दिवाली के. स्कूल में दिवाली की छुट्टियां चल रही थी, सो कोई बहाना न बनाकर ना-नुकर भी संभव नहीं रहा. मैंने अपना लिखना-पढ़ना छोड़ा और घर की साफ़-सफ़ाई में लग गया.
दो दिन से घर की सफ़ाई में सारे काम छोड़ रोज़ सुबह से लेकर शाम तक कोल्हू के बैल की तरह जुटा हूं. लगने लगा जैसे मैं अखाड़े में पहली बार दण्ड-बैठकें कर रहा हूं. शरीर थकने लगा. कमर टूट कर मैथी पालक हो गई. हे भगवान! पता नहीं अभी कितने दिन और चलेगा सफ़ाई अभियान? पत्नी कहती, “सरकार गृहिणियों की सुविधा को ध्यान में रख टीचर्स को स्कूल में छुट्टियां साफ़-सफ़ाई में सहायक बनने के लिए ही तो देती है.”
दो दिन में आधा घर ही साफ़ हुआ था. अभी तो वह कमरा जहां मैं शांति से लिखने-पढ़ने का काम करता हूं और जिसमें वर्षों से जमी पत्र-पत्रिकाएं और कहानी-कविता की किताबें आलमारियों और टांड में ठसाठस भरी हुई थी. सफ़ाई करना ज्यों का त्यों बाकी था. कई पत्रिकाएं तो जिनकी उम्र पैतालिस-पचास पार हो गई, वह सारी पत्नी की पुरानी साड़ियों में बंधी टांड पर पड़ी थी. उन्हें टांड से नीचे गिराया, तो पूरा कमरा धूल-धमाके से भर गया. खांसी चलने लगी शुद्ध हवा की चाह में दौड़कर बाहर आया.
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इन पत्रिकाओं को मैंने साहित्य के प्रति लगाव के कारण अभी तक संभालकर रखा हुआ था. बस, दिवाली के साफ़-सफ़ाई के दिनों में दिन भर हो जाते. बाकी सालभर साड़ी की गर्माहट में लिपटकर अपने दिन काटती रहती. लंबे समय से ये पत्रिकाएं ही पत्नी की निगाह में कांटे की तरह चुभती रहतीं. और गाहे-बगाहे इन्हें रद्दी के हवाले करने की धौंस देती रहती. मैं ओल्ड इज गोल्ड कहकर उसे समझाने का प्रयास करता, पर वह तर्क देती, “इन्हें कभी खोलकर पढ़ते तो देखा नहीं. फिर इनके प्रति इतनी बेचैनी भरा लगाव क्यों?” मैं हां हूं… करता, जैसे-तैसे उसे संतुष्ट कर अपनी साहित्यिक आस्था को संजोए रखने में हर बार सफल हो जाता.
पर अब की बार कुछ दिन पहले ही अल्टीमेटम मिला. यह अल्टीमेटम पहले की तरह फुस्स हुए पटाखे की तरह नहीं था, बल्कि इस बार तो करफ्यू में देखते ही गोली मार देने के आदेश की तरह तेज-तर्रार लग रहा था. मैंने इसके बावजूद भी सोचा जो होगा देखा जाएगा. भली करेंगे राम.
सुबह चाय पीकर काम पर लगा ही था कि पत्नी आ धमकी. दो घंटे में कमरे की सफ़ाई पूरी करने की चेतावनी देती बोली, “एक सरकारी नौकरी करनेवाली युवती कमरा किराए पर ले रही है. मैंने उसे यह कमरा बता दिया. दो पैसे आएंगे, तो कई काम होंगे. बेटी की शादी करनी है, तो पैसा जो जुटाना ही पड़ेगा न?” अपना पक्ष रख चली गई.
मैं भी थका-थका हो गया, सो थोड़ा सुस्ताने लगा. सब पत्र-पत्रिकाओं को देख छांटना कोई छोटी-मोटी बात नहीं, सो सुविधा से काम करने का सोच ही रहा था कि पत्नी फिर आ धमकी. उसने आव देखा न ताव देखते ही देखते आलमारियों की सारी किताबें दोनों हाथों से नीचे गिरा दीं. फिर मुझे तीखी नज़रों से देखती बोली, “ऐसे टर्रम-टर्रम से नहीं होता काम. मैं तुम्हारी तरह मिनटों के काम में घंटों नहीं लगाती.” तभी कुकर की सीटियों ने उसे किचन में बुला लिया.
मुझे लगा आज का दिन तलवार की धार पर चलने जैसा है. सोचा सुबह से लग रहा हूं, थोड़ा नहा लूं, फिर इनसे निपटता हूं कि कैसा क्या करना है? अभी ऐसा मन बना ही रहा था कि पत्नी चाय बना लाई. बोली, “थको मत, गरमा गरम लेखकीय मूड़ वाली चाय बनाई है. ताज़ातरीन हो जाओ और जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ.”
अभी काम करने की प्रेरणा जगा वह बाहर निकली ही थी कि तभी डोरबेल बजी. देखा साहित्यिक मित्र गंगाधरजी प्रगट हुए हैं. पत्नी को सामने खड़ा देखा, तो पूछ बैठे, “कहां हैं कमलजी?”
“अंदर कमरे मे साफ़-सफ़ाई में व्यस्त हैं.” गंगाधरजी सीधे कमरे में पहुंच गए. देखा कमलजी तो चारों ओर किताबों पत्रिकाओं के ढेर से घिरे बैठे हैं.
“अरे! अभी तक तैयार नहीं हुए. सोमेवरजी के यहां गोकुलधाम पुस्तकालय उद्घाटन में चलना नहीं क्या? यह काम तो फिर कभी ़फुर्सत में कर लेना. सोमेवरजी ने अपने ही मकान के कमरे में प्रबुद्ध लोगों और लेखकों के लिए पुस्तकालय खोल रहे हंैं. वहां कई साहित्यिक प्रेमी पहुंच चुके थे.”
कमलजी ने पत्नी की ओर देखा. गंगाधरजी की बात से उसका चेहरा लाल हो गया था, पर पत्नी के सारे ग़ुस्से को धता बताकर वह गंगाधरजी के साथ हो लिए. मुख्य अतिथि के रूप में कमलजी कम्प्यूटर, मोबाइल और टीवी के ज़माने में पुस्तकों व पुस्तकालय के महत्व पर प्रकाश डाला. साथ ही भाई सोमेवरजी की दरियादिली पर ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए उनका आभार जताया.
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कमलजी दो घंटे बाद घर लौटे, तो नज़ारा बहुत कुछ बदला हुआ था. कमरा पूरी तरह साफ़ हो चुका था और वह युवती किराए पर रहने आ गई थी और कमरे में अपना सामान जमा रही थी. पत्नी सारी पुरानी पत्र-पत्रिकाएं रद्दी वाले को दे चुकी थी. रद्दी वाला जिन्हें ठेले पर लाद कर और रद्दी की चाह में आवाज़ लगाता आगे बढ़ गया. मैं अपनी साहित्यिक दुनिया के ख़ज़ाने को सदा के लिए विदा होता देखता रहा.
आलमारी की सारी पुस्तकें अब प्लास्टिक के कट्टे में डालकर पीछे वाले अंधेरे कमरे में पहुंचा दी गई.
पत्नी कमलजी को देख चेहरे पर विजयी मुस्कान लाती हुई उत्साह से बोली, “आपका सारा बोझ हल्का कर दिया. दिवाली की सफ़ाई पूरी हो गई. अब ये पुस्तकें नई खुली लाइब्रेरी में ले जाना. आपके सहयोग पर सब आभार जताएंगे.” कमलजी सोचते रहे, ‘हे भगवान यह दिवाली की सफ़ाई हुई या मेरे साहित्य जगत की.’
– दिनेश विजयवर्गीय
Photo Courtesy: Freepik
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