व्यंग्य- पैसा बोलता है… (Satire Story- Paisa Bolta Hai…)

इंसान तो सिर्फ़ मुंह से बोलता है, पर पैसा चारों तरफ़ से बोलता है. पैसा चाहे कार की ड्राइविंग सीट पर बैठे या पिछली सीट पर, लोग पहचान ही लेते हैं. और मेरे जैसा शख़्स सूट-बूट और टाई पहनकर कार की पिछली सीट पर बैठे, तो भी हमारे पड़ोसी वर्माजी पहचान कर बोल ही देंगे, “कौआ चला हंस की चाल…” पैसा जो बोलता है.

मुझे पूरा यकीन है कि ध्यान से सुनेंगे, तो पैसे की आवाज़ साफ़-साफ़ सुनाई देगी. पैसा बोलता ही नहीं, दहाड़ता भी है. उसके सामने आदमी घिघियाता है, रोता है, फरियाद करता है और चारण बनकर पैसे की वंदना करता है. पैसा वो मास्टर की है, जो हर बंद ताला खोल देता है. पैसा न हो तो खून के रिश्तों में भी चीनी कम हो जाती है और पैसा हो, तो बेगानी शादी में भी अब्दुल्ला दीवाना हो कर नाचता है. पैसेवाले मूर्ख की बकवास भी प्रवचन का आनंद देती है और पैसे से बंजर विद्वान की नेक सलाह भी मोहल्ले को बकवास लगती है. पैसेवाले का चरण रज चन्दन होता है और गुरबत का चबैना फांक रहे इन्सान के सलाम का जवाब देने से भी लोग कतराते हैं- क्या पता उधार मांगने के लिए नमस्ते कर रहा हो..!
पहले सिर्फ़ सुनता था, अब देख भी लिया कि लेखक कड़की के तालाब में उगा हुआ वो कमल है, जिसमें कभी पैसे की ख़ुशबू नहीं आती. दूर से बडा़ ख़ूबसूरत लगता है- खिलखिलाता और अपने टैलेंट से सबका ध्यान अपनी ओर खींचता. लोग उसकी ख़ूब तारीफ़ करते हैं, “कमाल है! गज़ब की रचना! कोई मुक़ाबला नहीं जी…” मगर उसकी जड़ों में लिपटे हुए गुरबत के कीचड़ को कोई नहीं देखता.
ट्रेजडी देखिए आह से निकला होगा गान- को पूरी बेशर्मी से लेखक की नियति बताई जाती है. शायद ऐसी रुग्ण मानसिकता ने रचनाकार को नोट से दूर नियति की ओर धकेल दिया है. लिहाज़ा आख़री सांस तक सिर्फ़ उसके हाथ की कलम बोलती है, पैसा नहीं बोलता.
इंसान तो सिर्फ़ मुंह से बोलता है, पर पैसा चारों तरफ़ से बोलता है. पैसा चाहे कार की ड्राइविंग सीट पर बैठे या पिछली सीट पर, लोग पहचान ही लेते हैं. और मेरे जैसा शख़्स सूट-बूट और टाई पहनकर कार की पिछली सीट पर बैठे, तो भी हमारे पड़ोसी वर्माजी पहचान कर बोल ही देंगे, “कौआ चला हंस की चाल…” पैसा जो बोलता है.
एलआईसी वाले मछली पकड़ने के लिए एक स्लोगन लाए हैं- ज़िंदगी के साथ भी.. ज़िंदगी के बाद भी… ये पैसे के बारे में कहा गया है. पैसा जितना ज़िन्दगी में बोलता है, उससे ज़्यादा मरने के बाद बोलता है. धर्मशाला, प्याऊ, मस्जिद, मंदिर, अनाथालय बनवाकर लोग पुण्य के ब्याज़ में पैसे की झंकार सुनते रहते हैं. पैसे के बगैर स्वर्ग कितना दुरूह और नर्क कितना नज़दीक है. तभी तो किसी दिलजले ने कहा है- पैसे बिना प्यार बेकार है! (सुनते ही फ़ौरन चीनी कम हो जाती है)
हमारे वर्माजी इतने कठोर सत्यवादी हैं कि लोग सामने पड़ने से घबराते हैं. क्या पता बबूल की कांटेदार टहनी जैसी कौन-सी बात बोल दें कि कान तक का कोरोना निकल भागे. खाते-पीते बुद्धिजीवी हैं. पूंजीपतियों से छत्तीस का आंकड़ा है. मोहल्ले के बडे़ व्यापारी सेठ नत्थूमल को भी नथुआ कहकर बुलाते हैं. पैसे को पैर की जूती समझनेवाले वर्माजी अपना अलग दर्शन बताते हैं, “पैसा कमाने के लिए आदमी तोते की तरह बोलता है, पैसा आने के बाद आदमी मुंह में फेवीकोल डालकर ‘नथुआ’ हो जाता है. पैसा आने के बाद आदमी को बोलने की ज़रूरत ही नहीं, लोग बोलते हैं, पैसा सुनता है. पैसे की ख़ामोशी में बड़ी आवाज़ होती है बबुआ…”
बुजुर्गों ने एक कहावत गढ़ी थी- अक्ल का अंधा गांठ का पूरा.. जब पैसा किसी मूर्ख के पास आ जाए और पैसे को तरसते बुद्धिजीवी का उसी मूर्ख से वास्ता पड़ जाए, तो क्या होगा. दुर्भाग्यवश बुद्धिजीवी अगर साहित्यिक प्रजाति का हो, तो सोने पर सुहागा. साहित्यकार की जेब बेशक सूखा पीड़ित हो, पर दिल में खुद्दारी का हिन्द महासागर और क्रोध में दुर्वासा से कम नहीं होता. एक तो करैला, दूजा नीम चढ़ा. पूंजीपति को देखते ही लेखक ऐसे फुंफकारता है, गोया सांड ने लाल रंग देख लिया हो. कुछ करनी कुछ करम गति कुछ लेखक का भाग. लेखक अपनी खुद्दारी नहीं छोड़ता और दुर्भाग्य पीछा. पैसा और कलम- मत छेड़ो सनम.
पैसा बगैर ज़बान के बोलता है. बोलता ही नहीं चिढ़ाता भी है. पैसा जिसके पास जाता है, उसे मुखिया बना देता है. जो बोले वही सत्य वचन, जिधर से जाए वही रास्ता ( महाजनों येन गता: सा पंथा:) पैसा परिभाषा बदल देता है. हर कान पैसे की आवाज़ सुनता है. समाज भी पैसेवाले तराजू की जय जयकार करता है. पैसा ही रस्म और परंपरा तय करता है. गरीब आदमी की पत्नी अगर कम कपड़े पहने, तो ‘मज़दूर ‘ और पैसे वाले की बीबी अगर लंगोट पहन कर निकले तो मॉडल कहलाए!
कि मैं कोई झूठ बोल्या…

सुल्तान भारती


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Usha Gupta

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