"क्या लिखते हो?"
"व्यंग्य"
"कितना लिखा है?"
"कभी गिनकर नहीं देखा."
''गिनने को कौन कह रहा. कभी तौल कर नहीं देखा कि कितना लिखा है? दस किलो-पंद्रह किलो, आख़िर कितना लिखा है."
"कभी तौला नहीं."
"इसका मतलब तुम्हारी रचनाओं में कोई वज़न नहीं है."
मैं तुरंत हीनता के दबाव में आ गया. उस दिन मुझे पहली बार पता चला कि उनकी सारी रचनाओं का वज़न एक कुंटल से ऊपर जा चुका था.
अब आप ये सोच कर हैरान होंगे कि इतना वज़नदार लेखक है कौन? इस कोरोना काल में दिमाग़ पर इतना ज़ोर मत डालें, मैं बता देता हूं. डेढ़ कुंतल शब्द लेखक के शरीर के बारे में नहीं, अपितु लेखक की कुछ प्रकाशित और ज़्यादातर अप्रकाशित रचनाओं के बारे में है. लेखक अब कालजयी हो चुके हैं (जी हां, दो वर्ष पूर्व वह काल के मुंह में जा चुके हैं) तब से हम उन्हे कालजयी मानते हैं. वैसे उन्होंने जीते जी लेखन की कोई विधा ऐसी नहीं छोड़ी जिसे छेड़ा ना हो. वो साहित्य में छेड़खानी के लिए जानें जाएंगे.
काॅलेज छोड़ने के बाद उन्होंने वकालत शुरू की. इसमें मन रमा नहीं. अचानक एक रात स्वप्न में आकर सरस्वती ने उनकी सोई हुई साहित्यिक प्रतिभा को जगा दिया. बस, उसके बाद चिराग़ों में रोशनी ना रही. गनीमत थी कि तब तक घर बनवा चुके थे और परिवार ठीक ठाक था. पर जैसे ही उनका हृदय परिवर्तन हुआ, लक्ष्मी ने अपना तबादला ले लिया और सरस्वती अंदर आ गईं. नए-नए लेखक बने थे, हर विधा पर फावड़ा लेकर टूट पड़े. कोर्ट जाना छोड़ दिया. रात-दिन रचनाएं जन्म लेने लगीं. कविता, मुक्तक, छंद, चौबोला, शेर, ग़ज़ल के बाद बहुमुखी प्रतिभा नाटक, कहानी, संस्मरण और उपन्यास की ओर मुड़ गई. उनकी प्रतिभा से मोहल्ले में आतंक छा गया. बीवी की चिंता बढ़ रही थी और पड़ोसी त्राहिमाम त्राहिमाम कर रहे थे (क्यों ना करते, वकील साहब उन्हें घर से निकलते ही पकड़कर रचना सुनाने लगते थे. कई पड़ोसी रात में निकलने लगे).
अब तक सृजन ही चल रहा था, कोई रचना प्रकाशित नहीं हुई थी, फिर भी उनका उत्साह कम नहीं हुआ. ऐसी महान प्रतिभा से मेरी मुलाक़ात पहली बार साल २०१४ के विश्व पुस्तक मेले में हुई. मैं उनकी प्रतिभा देख कर सन्न था. उस वक़्त वह सत्तर साल के हो चुके थे. हम दोनों के बीच कुछ इस तरह बातचीत हुई, उन्होंने पूछा था़, "आपका नाम?"
"सुलतान भारती"
"क्या लिखते हो?"
"व्यंग्य"
"कितना लिखा है?"
"कभी गिनकर नहीं देखा."
''गिनने को कौन कह रहा. कभी तौल कर नहीं देखा कि कितना लिखा है? दस किलो-पंद्रह किलो, आख़िर कितना लिखा है."
"कभी तौला नहीं."
"इसका मतलब तुम्हारी रचनाओं में कोई वज़न नहीं है."
मैं तुरंत हीनता के दबाव में आ गया. उस दिन मुझे पहली बार पता चला कि उनकी सारी रचनाओं का वज़न एक कुंटल से ऊपर जा चुका था. काफ़ी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी थीं और काफ़ी सुयोग्य प्रकाशकों की प्रतीक्षा में अभी अविवाहित थीं. एक विस्मयकारी जानकारी ये हाथ लगी कि उनकी पहली रचना पत्नी की मृत्यु के बाद छपी थी (वकील साहब ने पत्नी का जीवन बीमा करवाया था) पत्नी ने ख़ामोशी से मर कर वकील साहब को अमर कर दिया था.
वो मुझे बहुत चाहते थे. लगभग हर महीने फोन करके मुझे याद दिलाते थे, "तुम व्यंग्य अच्छा लिखते हो, मगर मुझसे अच्छा नहीं लिख पाते. अभी भी तुम्हारे व्यंग्य में ऑक्सीजन की कमी है."
मुझे कलम के साथ ऑक्सीजन सिलेंडर जोड़ना आज भी नहीं आता. लिहाज़ा मैं संजीदगी से उनकी बात मान जाता था. उन्होंने लगभग अपनी हर रचना मुझे भेंट दी. मगर वो गिफ्ट दे कर भूलते नहीं थे, बल्कि दो दिन बाद पूछना शुरू कर देते थे, "कैसी लगी रचना. इसकी समीक्षा कब लिखोगे?"
उनका ह्यूमर सेंस भी तगड़ा था. एक बार मुझसे बोल रहे थे, "एक जन्म में लेखक का विख्यात होना लगभग असंभव है. साहित्यिक पुरस्कार मिलता ही नहीं. मेरा एक सुझाव है."
"क्या?"
"हम साहित्य साधकों को 'प्रतिभा श्री' पुरस्कार देना शुरू करते हैं."
"नाम तो अच्छा है, लेकिन हम विजेताओं को किस आधार पर चुनेंगे?"
"बहुत आसान है, जिसकी रचना को प्रकाशकों ने सबसे ज़्यादा ठुकराई हो, उसी रचनाकार को प्रतिभा श्री से सम्मानित किया जाए."
वो अब इस दुनिया में नहीं रहे, इसलिए प्रतिभा श्री की योजना परवान नहीं चढ़ पाई, पर आज भी जब किसी नए लेखक से सामना होता है, तो मुझे उनके शब्द याद आ जाते हैं, "तुम्हारी रचना में वज़न की भारी कमी है, इसमें थोड़ा ऑक्सीजन डालो."
अल्लाह उन्हें जन्नत अता करे!..
- सुल्तान भारती
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