अचानक समीर को याद आया उसने पूछा, ”मां, सुरभि मुझे देखने रोज़ आती थी ना?“
“वह लोग क्या आएंगे. मुझे तो लगता है अब शादी भी नहीं होगी, इसलिए तू अपने कलेजे पर पत्थर पहले ही रख ले समीर!” बड़ी बहन ने ग़ुस्से से कहा, तो अनुराधा ने उसे रोकते हुए कहा, “नहीं.. नहीं.. ऐसा नहीं है.. उन्होंने ऐसा अब तक कुछ नहीं कहा..“
“नहीं कहा, तो अब कह देंगे.. इसके लिए अपने मन को तैयार कर लो मां.. वो लोग ग़लत नहीं है… ऐसी परिस्थिति में हर आदमी अपने भविष्य की ओर ज़रूर देखता है. क्या करोगी समीर की क़िस्मत में जो था, उसे मिला. हम कर ही क्या सकते हैं.“ बहनों के भी आंसू रुक नहीं रहे थे. समीर के पिता का दर्द भी उनकी आंखों से बहता था और समीर की स्थिति तो अंगारों पर लोटते उस व्यक्ति की तरह हो गई थी, जिसे चारों ओर ऊंची-ऊंची दीवारों से घेर दिया गया हो.
निकलने का कोई मार्ग शेष ही नहीं रह गया हो. ऊपर से तरह-तरह की दवाइयां, शरीर की असहनीय जलन, बार-बार सर्जरी, घाव की ड्रेसिंग… पर मन के अंदर जो घाव पक रहे थे, उसकी ड्रेसिंग क्या संभव थी? भीतर ही भीतर वह जो रोज़ अग्नि स्नान करता था, उससे निकलने का उसे कोई उपाय ही नहीं दिख रहा था. पूरा जीवन शून्य-सा नज़र आने लगा था. समय अपनी चाल चल रहा था धीरे-धीरे.. वैसे भी कठिन समय में वक़्त जैसे थम-सा जाता है.
और फिर वही हुआ, जिसका डर पूरे परिवार को सता रहा था. एक दिन सुरभि के पिता ने फोन करके संवेदना ज़ाहिर की और कहा कि हमें माफ़ कर देना हम अब शादी नहीं कर सकते, क्योंकि सुरभि हमारी इकलौती बेटी है… हमें उम्मीद है कि आप हमें समझने की कोशिश करेंगे…” समीर के पिता अवाक रह गए थे. कहने के लिए कोई शब्द ही कहां थे. धीरे-धीरे तीन महीने गुज़र गए. समय पर दवाइयों के सेवन और विभिन्न महत्वपूर्ण सर्जरी के कारण समीर की स्थिति अब पहले से थोड़ी-सी ठीक थी. वह बाएं हाथ से चम्मच लेकर खाना भी खाने लगा था. दाहिना हाथ अब तक ठीक नहीं हुआ था.
जब कभी वो आईने में अपना चेहरा देखता, तो मानो फिर से अग्नि स्नान की उसी चिर-परिचित जलन से नहा उठता. किसी भी व्यक्ति पर किया गया एसिड अटैक उस व्यक्ति के शरीर पर ही नहीं, आत्मा पर भी घातक होता है. शरीर तो स्वस्थ होकर एक न एक दिन ठीक हो जाता है, पर आत्मा का घाव कभी नहीं भरता. यह अग्नि स्नान उसके जीवन की सभी प्रेमिल, कोमल, मनोहारी संवेदनाओं को भी जलाकर खाक कर देता है.
आज समीर के हृदय में सुरभि के साथ बिताए कुछ अनमोल क्षणों की किर्चे भी चुभन पैदा कर रही थीं. समीर के दिन-रात बहुत ही कठिन अवस्था में बीत रहे थे कि अचानक… उसके जीवन में ख़ुशियों का प्रवेश हुआ. एक दिन दरवाज़े पर दस्तक होने पर अनुराधाजी ने दरवाज़ा खोला, तो अपने सामने सुरभि को देखकर वह हतप्रभ रह गईं. सुरभि ने उनके पांव छूते हुए कहा, “मुझे माफ़ कर दीजिए.. मैं अब तक दूसरों की बातें सुनती आई थी, पर अब मैं वही करूंगी, जो मेरा हृदय कहता है. मैं ऐसी स्थिति में समीर का साथ नहीं छोड़ सकती.“
डॉ. निरुपमा राय
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