कहानी- अपनी इमेज का क़ैदी 1 (Story Series- Apni Image Ka Qaidi 1)

 

सामने फैली हरियाली को अनदेखा कर, चहचहाते पंछियों को छोड़ मेरी ढीट नज़रें बार-बार दीया पर जा कर ठहर रही हैं और जब ठहरती हैं, तो भीतर अजीब-सी सिरहन होती है… यक़ीन नहीं होता ये मैं ही हूं. पूरी जवानी गुज़र गई, मज़ाल है, जो सुगंधा के अलावा कहीं और नज़र उठाकर देखा हो… और जब हमउम्र दोस्तों को ऐसा करते देखता था, तो कितनी लानते भेजना था… अब वे सब लानतें मुझ पर यू-टर्न मार रही हैं, मेरे ही भीतर से…

 

 

 

आजकल मां की कही एक बात मुझे बार बार याद आ रही है, ईश्वर को कभी चैलेंज नहीं करना चाहिए, वो आपको तुरंत औकात दिखा देता है. आप जब भी कह बैठते हो, चाहे दुनिया पलट जाए, मैं तो ऐसा कर ही नहीं सकता, बस ईश्वर इस बोलबचन को चुनौती के रूप में स्वीकार लेता है और फिर वे सारे आयोजन कर देता है, जिसके बीच आप ठीक वही कर बैठते हैं, जो सपने में भी नहीं सोच सकते थे.
जैसे इस समय मैं अपनी जॉगर्स पार्क फेसिंग बालकनी में अख़बार पढ़ने के बहाने बैठा हुआ सामने जॉगिंग कर रही दीया को ताड़ रहा हूं. अब आप ही बताइए 48 साल का इंसान जिसकी सुगंधा जैसी सर्वगुणसंपन्न पत्नी है, एक बालिग बेटी है, उसको ऐसा करना शोभा देता है भला!
पर मैं ये कर रहा हूं… सामने फैली हरियाली को अनदेखा कर, चहचहाते पंछियों को छोड़ मेरी ढीट नज़रें बार-बार दीया पर जा कर ठहर रही हैं और जब ठहरती हैं, तो भीतर अजीब-सी सिरहन होती है… यक़ीन नहीं होता ये मैं ही हूं. पूरी जवानी गुज़र गई, मज़ाल है, जो सुगंधा के अलावा कहीं और नज़र उठाकर देखा हो… और जब हमउम्र दोस्तों को ऐसा करते देखता था, तो कितनी लानते भेजना था… अब वे सब लानतें मुझ पर यू-टर्न मार रही हैं, मेरे ही भीतर से…
दीया हाल ही में मेरे ऑफिस में जूनियर इंजीनियर अपॉइंट हुई है. उम्र पता नहीं मगर दिखने में 25-26 लगती है. थोडी गदबदी सी, पुरानी फिल्मों की नीतू सिंह जैसी… गोल चेहरा, गेहुंआ रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, जो उससे ज़्यादा बोलती हैं…

 

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पहले तो मैंने उसको नोटिस नहीं किया, मगर जब शर्माजी की फेयरवेल पार्टी में बालों को स्ट्रेट कर फ्लोरल प्रिंट की साड़ी पहनकर आई थी, तो कितनी अलग लग रही थी. उस पर माथे पर सजी बड़ी बिंदी… और आंखों पर लगा चौड़ा आईलाइनर… उसे देख बिल्कुल बीस साल पहलेवाली सुगंधा याद आ गई थी. तभी कुछ अटक गई थी दिल में. पास से गुज़रा, तो उसकी महक ने देर तक पीछा किया… उसकी खिलखिलाहट भी हाथ थाम साथ चली आई… अजीब-सी मदहोशी लेकर घर लौटा था उस रात.
सुबह आंख खुली, तो सुगंधा से नज़रें नहीं मिला पाया… हांलाकि कोई प्रत्यक्ष गुनाह नहीं था मेरा… फिर भी… यह दिन बिल्कुल आम-सा था, हर हफ़्ते आनेवाले मंगलवार की तरह… मगर फिर भी मुझे ऑफिस जाते हुए कुछ ख़ास लग रहा था. मैंने ग्रे कलर की वो शर्ट निकाली, जिस पर मुझे सबसे ज़्यादा कॉप्लीमेंट मिले थे. बाल रोज़ से ज़्यादा समय लगाकर बनाए… चारों ओर से घूम-घूमकर आईना देख ही रहा था कि सुगंधा ने टोक दिया, “आज क्लाइंट मीटिंग है क्या… कुछ ज़्यादा ही तैयार नई हो रहे?”
मैं सकपका गया था.
“नहीं तो… हां, लंच के बाद है…” इससे पहले वो कुछ ओर पूछ ले मैं कार की चाबी उठाकर भाग खड़ा हुआ.
ऑफिस जाते ही नज़रें दीया पर ठिठक गई. कुछ परेशान-सी दिख रही थी. मुझसे रहा नहीं गया और वज़ह पूछ बैठा.
“नाइस ऑफ यू सर, बिन कहे ही सब समझ जाते हैं.”-वो मेरे कंसर्न पर रीझ गई, फिर रूंआसा हो उठी.
“ऐक्च्युअली, दो दिन के अंदर कंपनी गेस्ट हाउस खाली करना है और अब तक कोई अच्छा पीजी नहीं मिला.”

 

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तभी मुझे याद आया सामनेवाले फ्लैट के मेहताजी अपने टैरेस रूम के लिए बैचलर किरायदार ढूंढ़ रहे हैं. बताने की सोची, तो मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क कर मुंह को आने लगा. चंद पलों के अंदर मुझे एहसास हो गया कि अगर ये बला मेरे पड़ोस में आ गई, तो मेरा क्या हाल होगा? कैसे संभालूंगा इन बेलगाम धड़कनों को, फिसलती नज़रों को!

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें

दीप्ति मित्तल

 

 

 

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Usha Gupta

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