कहानी- ब्रोकेन वास 3 (Story Series- Broken Vase 3)

 

मुझे याद ही नहीं कि समय का वो पल कितने आराम से करवट लेकर पलटा था. इतने आराम से मानो वहीं रुक-सा गया था! मेरी आंखें बड़ी मुश्किल से उठकर अंजलि की आंखों को देख पाई थीं और फिर झुककर मूंद गई थीं! आसपास सब ठहरा, स्याह, गंदला…
“ऐसा… ऐसा हो ही नहीं सकता बेटा, तुम जानती हो न‌ पापा को… जानती हो न?”

 

 

 

 

… घर के हर एक कोने की सजावट में थोड़ा और प्यार मिला रही थी, थोड़ा और सजा रही थी कि तभी आंखें सामने रखे एक वास पर जा टिकीं… मेरा फेवरेट वास, एकदम सफ़ेद, घुमावदार लंबा वास.. जिसमें मैं हर दिन ताज़े फूल लाकर सजाती थी. प्रमोद ने एक बार छेड़ा भी था,”इस वास से बड़ा प्यार है तुमको… कोई ख़ास वजह?”
मैंने मुस्कुराकर कहा था, “ये वास मुझे अपनी तरह लगता है. सादा, शांत और नाज़ुक… और ये फूल…”

 

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“और ये फूल?” प्रमोद ने एकदम मेरे पास आकर पूछा था, मैं शरमा गई थी, “ये फूल… आपका प्यार है… जिनसे सजकर मैं और सुंदर लगती हूं.”
इस तरह की कितनी ही बातें सोचते, मुस्कुराते किसी तरह रात बीती ही थी कि सुबह लगातार कॉलबेल की आवाज़ ने चौंका कर जगाया.
“मम्मा! हम लोग कब से बेल बजा रहे हैं. इतनी गहरी नींद में थी आप? आप ठीक तो हो? फोन भी स्विच्ड ऑफ जा रहा आपका.”
अंजलि और दामाद अतुल, कुछ परेशान, बेचैन से मेरे सामने खड़े थे, मैंने सब कुछ समझने में एक पल लिया फिर हंसकर कहा, “फोन डिस्चार्ज होकर बंद हो गया होगा बेटा… अंदर आओ न, एक तो तुम लोग बिना बताए आ गए, रात में बताते तो कुछ बढ़िया नाश्ता…”
मेरी बात पूरी होने से पहले ही अंजलि के उतरे चेहरे ने मुझे डरा दिया, उसमें और दामाद में आंखों ही आंखों में कुछ बात हुई, वो बाहर ड्रॉइंगरुम में बैठ गए और वो मुझे लेकर मेरे कमरे में आ गई,
“मम्मा, कुछ बात करनी थी. आप बैठो पहले ठीक से.”
उसका स्याह पड़ा चेहरा देखकर मानो मेरी धड़कन रुकी जा रही थी, उसने मेरी हथेलियां अपने हाथ में लीं और एक पल रुककर पूछा,
“डॉ. वेदिका याद हैं आपको?.. गायनाकोलॉजिस्ट?”
मैंने तुरंत हामी भरी, “हां, वही न जो तुम्हारे पापा के साथ पोस्टेड थीं यहां, क्या हुआ उनको?”
मैंने डरते हुए पूछा, अंजलि ने अपनी झुकी हुई आंखें ऊपर उठाईं, दो आंसू टप्प से फिसलकर उसके गालों पर आ गिरे, “ऐक्चुअली मम्मा…”
मैंने उसका गाल थपथपाया, मेरी आवाज़ कांपने लगी थी, “क्या बात है बेटा, आगे बोलो.”
“मम्मा, डॉ. वेदिका आगरा में हैं और पापा.. पापा उनसे ही मिलने अक्सर आगरा जाते हैं…”
मुझे याद ही नहीं कि समय का वो पल कितने आराम से करवट लेकर पलटा था. इतने आराम से मानो वहीं रुक-सा गया था! मेरी आंखें बड़ी मुश्किल से उठकर अंजलि की आंखों को देख पाई थीं और फिर झुककर मूंद गई थीं! आसपास सब ठहरा, स्याह, गंदला…
“ऐसा… ऐसा हो ही नहीं सकता बेटा, तुम जानती हो न‌ पापा को… जानती हो न?”

 

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मैं बमुश्किल इतना बोल पाई. अचानक मुझे लगा मैं अंजलि को नहीं, ख़ुद को समझा रही थी. अंजलि तो मुझे बहुत कुछ बताती जा रही थी, वो सब जो उसने और अतुल ने इधर-उधर से पूछकर पता किया था. किसी ने कुछ बताया, किसी ने कुछ छुपाया.. लेकिन बचते-बचाते सच मुंह खोले सामने आकर खड़ा हो‌ ही गया था.
“पता है मम्मा, वो चिकनकारी का सामान, वो कुर्ते, साड़ियां, वो सब पापा आगरा से लाए थे, केवल लखनऊ में थोड़ी मिलता है, सब जगह मिलता है.. ही प्लांड एवरिथिंग…”

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें

लकी राजीव

 

 

 

 

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Usha Gupta

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