कहानी- इंजूरियस टु हेल्थ 2 (Story Series- Injurious To Health 2)

“राहुल, ये कॉलेज कैंपस है और तुम एक अच्छे स्टूडेंट हो, ऐसे सिगरेट मत पिया करो. कभी डिसिप्लिनरी एक्शन हो गया, तो करियर बर्बाद हो जाएगा. वैसे भी इस सिगरेट से मिलता क्या है, वही धुआं, जो जिगर को जला देता है, लंग्स को ख़राब कर देता है. सच तो ये है कि जिस दिन तुम्हारे पापा को पता चलेगा कि तुम कॉलेज से धुएं के छल्ले बनाने के लिए रेस्टिकेट हुए हो, तो वे जीते जी मर जाएंगे.” उसे ज़ोर का ग़ुस्सा आया था उस पर. “ओय! जा अपना लेक्चर अपने पास रख, बड़ी आई मेरी पैरेंट बननेवाली.” वह भी कुछ नहीं बोली, “कुछ नहीं राहुल, मुझे तुम अपने लगे, इसलिए कह दिया, वरना मुझे क्या.

यहां पिक्चर हॉल होता था और यह जो बड़ा-सा रेस्टोरेंट बन गया है, यहीं टी-स्टॉल था. ओह! अगर वह सब कुछ ढूंढ़ भी ले, तो अपनी वह उम्र कहां से लाएगा, जो उस व़क्त थी और उस उम्र के साथी? शायद कभी नहीं मिलेंगे. कॉलेज रीयूनियन में भी नहीं. अब तो जो मिलते भी हैं, वे आदमी मिलते हैं, साथी कहां? (वह हंसा) हम सोचने में भी ईमानदार कहां हैं. चलो, दोस्त मिल भी गए, तो वह कहां मिलेगी? हां, हां, आज फेसबुक और दुनिया के तमाम साधन मौजूद हैं, किसी को भी ढूंढ़ निकालने के लिए. फिर भी, कोई मिलता कहां है. मिल भी जाए, तो मिलता कहां है.

“सुनील, ज़रा गाड़ी रोको, मैं अभी आया.” वह नीचे उतरा. उसने पॉकेट से एक सिगरेट निकाली. एक बार ग़ौर से उसे देखा. यह वह सिगरेट नहीं, जिसका धुआं वह कॉलेज के ज़माने में होंठों से गोल सर्कल में पूरे रिंग की तरह निकालता था और दोस्त उसे दाद दे-देकर ताली बजाते थे. न जाने कितनी भीड़ उसके इस हुनर को देखने के लिए पेड़ों के नीचे खड़ी रहती थी.

‘आह!’ कई बार उसने अपने कानों से मीठी सिसकारियां सुनी थीं, लेकिन एक स्मार्ट स्टूडेंट के अपने जलवे होते हैं, वह मुड़कर किसी को नहीं देखता था. हुंह- ‘किस-किस का ख़ून होने पे रोया करे कोई, हैं लाखों हसरतें दिले उम्मीदवार में.’

कभी कोई कुर्ते का रंग भा गया, तो कभी कोई बालों की अदा, कभी किसी के बात करने के अंदाज़ ने दिल छीन लिया, तो कभी किसी की मुस्कुराहट दिल में बस गई. उसकी इमेज कोई अच्छी तो नहीं थी, हां नंबर अच्छे आने से गिनती अच्छे स्टूडेंट्स में होती थी और इसीलिए इमेज बुरी भी नहीं थी. कॉलेज के ज़माने में थोड़ी-बहुत छूट तो रहती ही है उस उम्र के नाम पर. आए दिन की बात थी, कभी कोई अकेला पाकर कहता, “सुनो राहुल, जब तुम धुएं के छल्ले उड़ाते हो, तो लगता है मेरा दिल उसके साथ आसमान में उड़ा जा रहा है.”

वह हंसता, “चल, रे बता तुझे फिज़िक्स के नोट्स चाहिए क्या? तू ऐसे ही मांग लेती, कभी तुझे मना किया है कॉपी के लिए.”

“राहुल, ऐसी बात नहीं है. हम लोग भी वही नोट्स पढ़ते हैं, पर हमारे नंबर क्यों नहीं आते.”

वह ज़ोर का ठहाका लगाता, “धुएं के छल्ले देखने में और उसे बनाकर आसमान में उड़ाने में बड़ा फ़र्क़ होता है. तुम बस उड़ते हुए छल्ले देखा करो, कभी मेरे साथ सिगरेट पीकर देखो, तो पता चले.”

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“हाय! तुम कितने बदतमीज़ हो, शर्म नहीं आती, मुझसे सिगरेट पीने के लिए कहते हुए. ये काम तुम्हें और तुम्हारे दोस्तों को ही मुबारक. मुझे नहीं चाहिए कॉपी-वॉपी.”

“तू तो नाराज़ हो गई. तू बस पानीपूरी खाया कर. तेरी ज़िंदगी बस उतनी ही है.”

“नहीं तो क्या, धुएं के छल्ले उड़ाने से कोई आसमान में पहुंच जाता है?”

“तू नहीं समझेगी इसे, जब छल्ले ऊपर उठते हैं, तो लगता है मेरे ख़्वाब उड़ान भर रहे हैं. और सुन, ये मेरे डैडी-मम्मी को मत बता देना. मम्मी को तो वैसे ही मेरे होंठों के काले निशान देखकर शक होने लगा है.”

“सुन, तेरी मम्मी का तो पता नहीं, पर कॉलेज में मेरी सभी फ्रेंड्स को तेरे ये गोल काले होंठ बहुत पसंद हैं.”

इतना कहकर वह भागी, “और तुझे पसंद हैं कि नहीं?” उसने पूछा, लेकिन कोई जवाब नहीं आया. यह आए दिन के क़िस्से थे. कॉलेज के ज़माने में कभी किसी हसरत का ख़ून होता, तो कभी किसी और का. यहां तक कि आज तो यह भी नहीं याद कि उस ज़माने की हसरतें क्या-क्या थीं?

उसकी नज़र थोड़ी दूर गई, दुकान नज़र आ गई थी, “एक सिगरेट.”

एक हाथ गुमटी से बाहर आया, बूढ़ी आंखों से झांकते हुए किसी ने जैसे चश्मा साफ़ किया, “राहुल भइया, आप बड़े दिन बाद नज़र आए.” सिगरेट आगे बढ़ाते हुए वह बोला.

राहुल ने भी थोड़ा ध्यान से देखा, “अरे छुटके तू! तू अभी भी यहीं है? और पहचान में नहीं आ रहा, बिल्कुल बदल गया है. मुंह पोपला हो गया, बाल गायब.”

वह हंसा, “हमें कहां जाना है राहुल भइया, हमारी छोड़ो पर अब तो आप बड़े आदमी हो गए हैं. वो एक दिन नीलकंठ मैडम किसी से बात कर रही थीं.”

राहुल चौंका, “नीलकंठ मैडम!” ओह नीलकंठ, वही नीलकंठ, एक दिन जिसने उसे रोककर कहा था, “राहुल, ये कॉलेज कैंपस है और तुम एक अच्छे स्टूडेंट हो, ऐसे सिगरेट मत पिया करो. कभी डिसिप्लिनरी एक्शन हो गया, तो करियर बर्बाद हो जाएगा. वैसे भी इस सिगरेट से मिलता क्या है, वही धुआं, जो जिगर को जला देता है, लंग्स को ख़राब कर देता है. सच तो ये है कि जिस दिन तुम्हारे पापा को पता चलेगा कि तुम कॉलेज से धुएं के छल्ले बनाने के लिए रेस्टिकेट हुए हो, तो वे जीते जी मर जाएंगे.” उसे ज़ोर का ग़ुस्सा आया था उस पर.

“ओय! जा अपना लेक्चर अपने पास रख, बड़ी आई मेरी पैरेंट बननेवाली.”

वह भी कुछ नहीं बोली, “कुछ नहीं राहुल, मुझे तुम अपने लगे, इसलिए कह दिया, वरना मुझे क्या. जिसे जो मर्ज़ी करे, चाहे कुएं में कूदकर जान दे दे या ज़हर खाकर, फ़र्क़ क्या पड़ता है. फाइनल ईयर है, बस, छह महीने बचे हैं. बाक़ी तुम जानो और तुम्हारा काम जाने. वैसे भी मुझे तुमसे कोई नोट्स नहीं चाहिए.”

मुरली मनोहर श्रीवास्तव

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