मैंने महसूस किया था कि विभाग के लगभग सभी शोधार्थी और नौजवान फैकल्टी सदस्य उसकी सुन्दरता का लुत्फ़ उठाने प्रति दिन और कुछ तो दिन में कई बार, उसके पास किसी न किसी बहाने अवश्य आते थे और सबों को वह अपनी मुस्कुराहट से सम्मोहित करती रहती थी. वह उनके आने का कारण समझती थी, पर उसकी भृकुटी तनते हुए कभी नहीं देखा. दुबारा उससे क्षमा मांगते हुए मैं अपने कमरे में वापस आ गया.
दूसरे दिन मैं अपने कंप्यूटर पर व्यस्त था, तभी किसी के अन्दर आने की आहट हुई. देखा तो एक सुन्दर हिन्दुस्तानी चेहरा कमरे में आया है. दूसरे ही क्षण जब उसकी हाथो पर नज़र गई, तो मुझे एक झटका लगा. वह नई जैनिटर थी, जिसके बारे में ग्वेन ने बताया था. मैंने किसी हिन्दुस्तानी लड़की की जैनिटर के रूप में आने की कल्पना भी नहीं की थी. उसने भी मुझे गौर से देखा और अपने काम में व्यस्त हो गई.
तीन दिनों के बाद सफ़ाई हो रही थी, अतः समय भी लगना ही था. अपना काम करते हुए उसकी नज़र बार-बार मेरी तरफ़ उठती, पर मैंने जान-बूझकर ध्यान ही नहीं दिया. एक भारतीय मूल की लड़की का जैनिटर के रूप में काम करना मैं पचा नहीं पा रहा था. अपना काम पूरा कर वह चली गई. तत्पश्चात मुझे महसूस हुआ कि मैंने सामान्य शिष्टाचार भी नहीं निभाई थी. उसे हेलो तो कहना चाहिए था. वह लड़की जब अगले दिन कमरे में आई, तो उसने ही पहल की, उलाहनाभरे शब्दों में उसने पूछा, “क्या मैं तुम्हे हिन्दुस्तानी नहीं दिखती?”
मैंने अपनी झेंप मिटाने के लिए हंसते हुए कहा, “लगती हो, पर दक्षिण अमेरिकी देशों के हिस्पैनिक भी हमारी तरह ही दिखते हैं न, इसी कारण तुम्हें टोकने में मुझे झिझक हो रही थी.“
उसके बाद तो ऐसा लगा जैसे कोई चैटर बॉक्स खुल गया हो. वह लगातार बोले जा रही थी. बीच-बीच में कुछ हिंदी के शब्दों का भी प्रयोग कर लेती, शायद मुझे विश्वास दिलाना चाहती थी कि वह भी मेरी तरह ही भारतीय मूल की है. पता लगा उसके पूर्वज, चार पुश्त पूर्व, भारत के भोजपुरी भाषी क्षेत्र यानी हमारे ही क्षेत्र से गुयाना लाए गए थे गन्ने की खेती के लिए. लम्बी यात्रा के बाद जो ज़िन्दा बचे, वे धीरे-धीरे वहीं के हो कर रह गए. उनके पास लौटने का कोई साधन भी नहीं था और लौट कर करते भी क्या. उस बातूनी लड़की ने सफ़ाई करते हुए अपनी पूरी रामकथा सुना डाली, पूरी तो नहीं फिर भी काफ़ी हद तक. मैं उसकी बातों का आनन्द तो ले रहा था, पर साथ ही की-बोर्ड पर अपनी उंगलियों को भी तेजी से चला रहा था. मेरे एक पीएचडी शोधार्थी का प्रोजेक्ट समाप्त हो रहा था और मुझे उसके लिए नया प्रोजेक्ट तैयार कर दो दिनों के अन्दर भेजना था, अन्यथा उसकी फेलोशिप रुक सकती थी.
अचानक उसका एक प्रश्न सुनकर मैं चौंक गया और की-बोर्ड पर दौड़ती उंगलियां भी थम गई.
“तुम ब्राह्मण हो क्या?” प्रश्न सुनकर मन तिक्त हो गया, शायद इसलिए भी कि मैं स्वयं इसी प्रश्न में पिछले एक सप्ताह से उलझा हुआ था. मैंने कोई जवाब नहीं दिया, पर वह वाचाल कहां रुकनेवाली थी. चैटर बॉक्स लगातार चल रहा था, “जानते हो हम लोग भी ब्राह्मण नहीं हैं. हमारे दादा के पिता अपने मुल्क में चमड़े का काम करते थे, शायद इसी कारण हम चर्म… कहे जाते थे. यहां आने के बाद वे और फिर मेरे दादा, खेतों में काम करने लगे और वे सब कुर्मी हो गए.”
“क्या कहा तुमने?”
मैं लगभग चीख पड़ा और साथ ही की-बोर्ड पर दौड़ती मेरी उंगलियां भी रुक गईं. मुझे थोड़े आश्चर्य से उसने देखा, पर अपने रौ में बोलती गई.
“जानते हो मेरे पिता पढ़े नहीं, तो खेतो में ही काम करते रहे. अतः वे तो कुर्मी ही रह गए, पर मेरे चाचा ने ख़ूब पढ़ाई की और वे ब्राह्मण बन गए. वे अब पूजा करवाते हैं; हमारे यहां उनकी बहुत इज्ज़त है. भगवान सत्यनारायण की पूजा, होली, दिवाली की विशेष पूजा सब में उन्हें ही बुलाया जाता है. ऐसे समय हम भी कभी-कभी चाचा के साथ जाते थे. हमें ख़ूब मज़ा आता और खाने को भी अच्छे-अच्छे पकवान मिलते.”
मैंने बस इतना ही कहा, कहा भी नहीं शायद बुदबुदाया जिसे उसने सुना भी नहीं होगा… प्रपितामह चर्म… पितामह और पिता कुर्मी और एक चाचा ब्राह्मण, क्या बात है… दूसरे क्षण ही ऐसा लगा जैसे कोई ताज़ा हवा का तेज़ झोंका आया हो, जिसने मेरे दिमाग़ का सारा कचड़ा साफ़ कर दिया हो. यही बात तो मुझे शुभांगी भी समझा रही थी, पर मैं मानने को तैयार नहीं था. मैं उठा ऑफिस बंद की, पार्किंग लॉट में आया और गाड़ी निकाल कर घर को चल पड़ा. इतनी जल्दी विश्वविद्यालय से मेरा लौटना शुभांगी के लिए भी अप्रत्याशित था, “क्या हुआ, तबियत ठीक नहीं क्या?”
“नहीं अब ठीक हो गई है. आज रोहन से कह दो कि हम कल शाम शिकागो पहुंच रहे हैं. वह संचिता के माता-पिता से शनिवार की मीटिंग तय कर दे. उनसे उसकी शादी की बात फाइनल करनी है.” शुभांगी मुझे आश्चर्य से देख रही थी, उसकी आंखों में ख़ुशी के आंसू थे.
प्रो. अनिल कुमार
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