… “हां, कह तो रही थी, पर अब न तो घूम सकते हैं, न बेकरी का कोर्स करवा सकते हैं.” यामिनी के निराशा में डूबे स्वर को नज़रअंदाज़ करते हुए वे बोलीं, “पिछले साल उसने कई बार ओ.टी.जी. ख़रीदने की ज़िद की. उसके बारे में क्या सोचा?”
“मां, इन दिनों अच्छे-अच्छों की हॉबी डर के साए में दम तोड़ रही है. रिस्क है. इतनी महंगी चीज़ ख़रीदें और इस्तेमाल भी न हो तो…”
“इस रिस्क पर किया ख़र्च सस्ता पड़ेगा… बनिस्बत मनोचिकित्सक पर ख़र्च करने के. तुम लोगों को नव्या बावली नहीं लगती क्या? पूरे घर के दरवाज़े-खिड़कियां बंद रखती है… घर में दिनभर ऑक्सीमीटर लेकर घूमती है… सूंघ-सूंघ कर अपनी इंद्रियों को चेक करती है… उस दिन बैंक गई, तो मास्क दो की जगह तीन लगाए, फिर भी आसपास से निकलते लोगों को देख ऐसे बिदकती रही कि मुझे तो लगा वहीं हार्टफेल न हो जाए… सुरक्षा लेना अलग बात है, पर कोरोना को दिमाग़ में लादे दिनभर फिरना बीमारी है.”
“पर मां, क्या करे वह भी, इस वक़्त ख़बरें भी ऐसी आ रही हैं कि रस्सी भी सांप दिख रही है.”
“रस्सी सांप दिखने लगे, तो मन का इलाज करवाना चाहिए बाकी तुम लोग समझदार हो.”
और फिर तीन दिन बाद ऑनलाइन ओ.टी.जी. आ गया. यामिनी का डर सही साबित हुआ. जिस ओ.टी.जी. को ख़रीदने के लिए उसने मिन्नते की, वह उपेक्षा के साथ पैक ही पड़ा रहा.
कोरोना का पीक आ रहा था. आए दिन कोरोना के बढ़ते मरीज़, हस्पताल में बेड और ऑक्सीजन की मारामारी चल रही थी… मन विचलित कर देनेवाले दृश्यों ने उसे गुमसुम कर दिया था. मोबाइल स्वतः ही बंद कर दिया था नव्या ने.
एक दिन सुबह-सुबह सब लोग बैठे चाय पी रहे थे कि तभी नव्या बोली, “जब भी मोबाइल खोलो वाॅट्सएप और सोशल साइट पर कोई मनहूस ख़बर आ जाती है… जानती हो दादी आज रात बड़े ऊलजुलूल सपने आए. लगा, जैसे मैं बियावान जंगल मे मदद के लिए पुकार रही हूं और पूरा जंगल जल रहा है.”
“सच कहती है नव्या… जाने क्यों मुझे भी लगने लगा है कि दुनिया विनाश की कगार पर है…” गोदावरी के कहने पर सब चौंके.
“कौन जानता है कि यही धरती के अंत का आरंभ हो… आख़िरकार कोई कब तक इस आपदा में अपना मनोबल बनाए रखे.”
“मां, आपको तो इसे समझाना चाहिए कि ऐसी नकारात्मक बातें न करे, पर आप तो आग में घी डाल रही हैं…” नवल ने कहा और यामिनी भी कुछ विस्मय में पड़ गई…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
मीनू त्रिपाठी
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