मम्मी-पापा ने कभी भी किसी बात के लिए मुझ पर दबाव नहीं डाला. आईआईटी में अच्छे रैंक के कारण मैं किसी भी ब्रांच से इंजीनियरिंग कर सकती थी. पापा चाहते थे कि मैं दिल्ली में ऐडमिशन लूं , क्योंकि पटना से दिल्ली आना-जाना सरल होता. किंतु मैंने जान-बूझकर काउंसलिंग में खड़गपुर को चुना, क्योंकि मिलन को वहां जाना था. मम्मी ने मुझे समझाने का प्रयास भी किया, लेकिन भावनाओं के समक्ष बुद्धि सदा पराजित होती है. बुद्धि तो मुझे तब भी सचेत करती रही, जब मैंने मम्मी-पापा के समक्ष मिलन से विवाह की बात रखी.
मेरे निर्णय को पापा ने मौन विरोध के साथ स्वीकार किया. किंतु मम्मी चुप न रह सकी और बोलीं, “पारुल, अभी तुम्हारी नौकरी लगी और तुम काम पर फोकस करने की जगह शादी का सोचने लगी. प्रेम अथवा विवाह ग़लत नहीं, पर समय अवश्य ग़लत है. तुम दोनों ही अपरिपक्व हो और विवाह की गंभीरता को समझ नहीं पा रहे. अभी तो तुम दोनों को ही अपने-अपने कार्यस्थल पर स्वयं को सिद्ध करना है. बहुत संभव है तुम दोनों एमबीए भी करना चाहो. यह समय किसी भी तरह के विघ्न से दूर रहकर, परिश्रम करने का है. और फिर हम तुम्हें अलग होने को तो नहीं कह रहें. बस कुछ समय अपने करियर पर ध्यान दे लो. तुम तो सदा से इतनी महत्वाकांक्षी रही हो, फिर शादी की इतनी अधीरता क्यों?”
लेकिन पुरानी पीढ़ी प्रयास करके भी अपने नई पौध को उसके हिस्से के खरपतवार से नहीं बचा सकती. अपने जीवन के गांठों को स्वयं ही खोलना होता है. वही हमारे साथ हुआ. परिवार के समझाने के बावजूद मैंने और मिलन ने शादी कर ली.
इस विवाह को मेरे अभिभावकों और मिलन के पापा ने तो खुले मन से स्वीकार कर लिया, पर मिलन की मां तटस्थ रहीं. मैंने और मिलन ने उम्र के हर पड़ाव को एक साथ देखा. शैशव और किशोरवस्था की मित्रता युवावस्था के मार्ग में प्रेम में परिवर्तित हो गई. हमारी मित्रता ने हमारे परिवारों को भी निकट ला दिया था. किंतु मिलन की मां और उसकी बड़ी बहन से मुझे वो आत्मीयता कभी प्राप्त नहीं हुई, जो मिलन को मेरे मम्मी-पापा से मिलती थी. इसके कई कारण हो सकते हैं. मेरे कुशाग्र और सशक्त होने के साथ गृहकार्य में भी दक्ष होना, उन्हें नहीं समझ आता. उन्हें मेरा असंस्कारी होना समझ आता. उन्हें मेरे भीतर स्त्री सुलभ गुणों की कमी नज़र आती. सौ बात की एक बात कि उन्हें मैं पसंद नहीं थी. यह स्पष्ट करने में उन्होंने शब्दों को ख़र्च करने में कभी कोई कंजूसी नहीं की. किंतु मैंने उनकी नाराज़गी को गंभीरता से नहीं लिया. मेरे लिए मिलन अहम था, जिसके साथ मुझे अपनी गृहस्थी पटना से मिलों दूर हैदराबाद में आरंभ करनी थी. यह सब सोचकर ही मैं अपनी सास की मौखिक प्रताड़ना को अनवरत झेलती रही. दो महीने बाद ही नौकरी का कॉल लेटर आ गया और मैं और मिलन हैदराबाद चले आए…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
पल्लवी पुंडीर
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