चाहकर भी कोई कवि
कभी नहीं लिख सकेगा शोकगीत
स्त्री की उन इच्छाओं की मृत्यु पर
जो अभिव्यक्त होने से पहले ही
अनंत में हो गईं विलीन
हालांकि इतनी भी बड़ी ना थी उनकी कामनाएं
काश कि कोई सुन पाता
उनकी मौन होती आवाज़ के पीछे का शोर
स्याही से स्याह शब्दों में कोई लिख देता
अकेलेपन की हताशा
अवसाद की छाया
ना चाहे जाने, रीते रह जाने का दुख
घर पर कोई स्त्री रोज़ की अपेक्षा
आजकल ज़्यादा चुप है
तो कुछ और भी हो सकती है वजह
वाचालता पे लगा ग्रहण
उन्मुक्त उल्लास पर पड़ी वक्रदृष्टि
काश कि किसी कलाकार की कूची
भर दे इंद्रधनुषीय रंग उसके स्याह अंधेरों में
उपेक्षा के घूरे पर पड़ी सिसकती करवटें
प्रेमपूर्ण चुंबन की राह तकती सिलवटें
पतझड़ में तब्दील होता मर्मस्थल
अनकहे रह गए उद्बोधन
जीवन की खुरदरी दीवारों से
झै गया उम्मीदों का प्लस्तर
और एक दिन वो स्त्री
खो बैठेंगी अपना भोलापन
बाल-सुलभ ज़िद करने की आदतें
मनुहार की रवायतें
वह बनकर रह जाएंगी खांटी औरतें
सदियों से, सभ्यताओं से
ज़ारी यह सिलसिला इस युग में भी रहा गर अनवरत
तो जान लो
तिरस्कार, उपेक्षा से हिल जाती हैं घर की बुनियादें
वो घर फिर घर नहीं रहता…
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