यात्रा हो या ज़िंदगी
कुछ न कुछ छूट ही जाता है
पीछे
अधजिया सा
फिर..
‘जिए’ से ज़्यादा
‘अधजिए’ को जीने की लालसा
किए रखती है ज़िंदा
इसीलिए देखते रहते हैं उसे
डबडबाई आंखों से
मुड़-मुड़कर
अंत तक..
कुछ ऐसी ही यात्रा में हैं आजकल
ये ‘दोनों’
इससे बड़ी और कोई यात्रा हुई ही नहीं
और होगी भी नहीं
जिसे सिर्फ़ अनुभव ही किया जा सकता है
कोई शब्द हैं ही नहीं उसके लिए..
मिले थे जो कभी
पन्नों में
लिखते-लिखते
कब में लिखने लगे
एक-दूसरे को शब्दों में
कभी दर्ज हुए इतिहासों में
कभी नियति का इशारा हुए
बंधे हुए मन्नतों के धागों में
उलझते-सुलझते
छोड़ते हुए निशानियां
आत्मिक एहसास की
वो चलते रहे यूं ही..
समुंद्रों में खेलना
किलों की तहकीकात करना
निहारते जाना वृक्षों, जंगलों को
जी भर बातें करना हवाओं से
ये सब सुखद है
पर तलाशना स्वयं को
एक-दूसरे में
फलक से तारे तोड़कर लाने से भी ज़्यादा सुखद है..
सच में,
महज जगहों से गुज़रना ही तो यात्रा नहीं है
स्पर्श करना तमाम अनछुए को
महसूसना वो सब अनकहा
और जी लेना पिछला अनबीता
एक चक्र को पूरा करते हुए
रह जाना अधूरा
फिर कभी पूरा होने के लिए
.. ये सब आत्मिक यात्रा के ही तो सोपान हैं…
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