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पहला अफेयर: वो लड़की… (Pahla Affair: Wo Ladki)

पहला अफेयर: वो लड़की… (Pahla Affair: Wo Ladki)

तब मैं 22 साल का दुबला-पतला शर्मीला युवक था. गणित में स्नातकोत्तर करने के बाद एक छोटे-से गांव के स्कूल में मुझे अध्यापक की नौकरी मिली. शहर में रहने के आदी मुझे गांव के नाम से ही रुलाई आ गई, किंतु नौकरी भी ज़रूरी थी, सो चला गया. वहां के जागीरदार साहब के यहां नीचे की मंज़िल पर एक छोटा-सा कमरा ले लिया किराए पर और रहने लगा.

घर कच्चा था, गोबर से लिपा हुआ. ऊपर की मंज़िल पर मकान मालिक का परिवार रहता था और नीचे के हिस्से में आधे भाग में गाय-ढोर बांधे जाते और आधे भाग में किराए के लिए छोटी-छोटी कोठरियां बनी हुई थीं, जिनमें से एक में मैं रहता था. कोठरी का एक दरवाज़ा बाहर सड़क पर खुलता था और एक अंदर के आंगन की तरफ़. जागीरदार साहब के बच्चे दिलीप और उसकी छोटी बहन सविता स्कूल के बाद अक्सर ही मेरे पास आ जाते और ख़ूब बातें करते. हालांकि दोनों ही 13-14 साल के ही थे, लेकिन न जाने क्यों मुझसे दोनों को ही बहुत लगाव था. जब भी समय मिलता, दोनों भागे चले आते.

उन्हीं से पता चला उनकी एक बड़ी बहन भी है, जो इंदौर में चाचा के पास रहकर बीए कर रही है. दोनों उसकी ही बातें करते रहते. वो कितनी सुंदर है, सुशील है, अन्य लड़कियों से अलग है, पढ़ने में तेज़ है. दोनों ने उसका इतना बखान किया कि मैं भी रात-दिन उसके बारे में सोचकर उससे मिलने को व्याकुल होने लगा. मन में उसकी छवि-सी बस गई. अब तो मुझे दिलीप और सविता का इंतज़ार रहता कि कब वे आएं और अपनी बहन विजया की बात करें. रातभर भी उसी का ख़्याल बना रहता मन में.

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पहली नज़र के प्यार के बारे में तो सुना था, लेकिन यहां तो मुझे बिना देखे ही प्यार हो गया था उससे. दिलीप से पता चला, वह दीपावली की छुट्टियों में घर आनेवाली है. अब तो मैं बेसब्री से राह देखने लगा. एक दिन ढलती सांझ में अचानक हल्ला हुआ… “दीदी आ गई… दीदी आ गई…” मेरी धड़कनें तेज़ हो गईं. दरवाज़े की दरार से देखने की बहुत कोशिश की, लेकिन अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं दिया. तीसरे दिन सुबह खाट पर पड़ा था कि दिलीप की आवाज़ आई, “दीदी, मां बुला रही हैं…” और उत्तर में एक खनकदार स्वर उभरा “ये टोकरी डालकर आती हूं.” मैं तो सोच रहा था कि रोज़ उसकी मां वहां की सफ़ाई करती है, तो आज भी वही होंगी. मैंने दरार से झांककर देखा, चूड़ीदार-कुर्ता पहने, गुलाबी रंगतवाली

मासूम-सी लड़की सिर पर गोबर की टोकरी रखे आंगन में खड़ी थी. एक झलक ही देख पाया था कि वह गोबर फेंकने सामने मैदान में चली गई. किसी लड़के ने इस स्थिति में लड़की पसंद नहीं की होगी, लेकिन मैंने तय कर लिया कि इसी से शादी करूंगा.

20 दिनों में दो-चार बार ही उसकी झलक देख पाया और वह वापस चली गई. एक दिन शाम को दिलीप के साथ उसकी मां एक रिश्तेदार लड़की का फोटो लेकर आईं कि क्या वह मुझे पसंद है. मैंने तपाक से मना कर दिया. तब उन्होंने पूछा, “क्या आपको हमारी विजया पसंद है?” मैं शर्म के मारे कुछ बोल ही नहीं पाया, लेकिन दिल ख़ुशी से उछल पड़ा. मेरी चुप्पी पर वे निराश हो जाने लगीं, तभी दिलीप बोला, “मां, इन्हें दीदी पसंद है, ये शादी करने को तैयार हैं.” आज 55 साल हो गए हमारी शादी को, लेकिन आज भी गोबर की टोकरी सिर पर रखे हुए उसकी छवि आंखों में ज्यों की त्यों बनी हुई है.

– डॉ. विनीता राहुरीकर

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Geeta Sharma

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