तुम मिल जाओगी
किसी गली में
तो कमाल हो जाएगा
मगर पता है कि आज भी इस
बात पर बवाल हो जाएगा
क्या ग़लती थी हमारी?
जो मिलते थे ख़्यालात
एक-दूसरे से
बस विचारों का
तालमेल ही तो था
तो अच्छा लगता था
एक-दूजे का साथ
मगर तब भी हास्य-परिहास
का विषय थे हम
और शायद आज भी?
बहुत सारी बातें करनी हैं तुमसे!
मिल जाओ न किसी चाय की दुकान पर
ढेरों बातें करेंगे
या सड़क पर यूं ही निकल पड़ेंगे
चहलकदमी करते
एक-दूसरे से बातें करते
पुरानी यादों को समेटते
फिर गुज़रे कल को
थोड़ा सा जीते
कोई कुछ बोलेगा तो?
तो मैं जवाब दूंगा
ये कह कर की
मांग नहीं भरनी मुझे तुम्हारी
न ही तुम्हें मेरा घर बसाना है
बस हमारा तो मीठा-सा याराना है,
अच्छा लगता है
पुराने यारों के संग यूं ही बैठना-घूमना
बीते दिनों को फिर से याद करना
पर नहीं घूम सकता तुम्हारे साथ
नहीं पी सकता एक कप कॉफी
कभी किसी कैफे में बैठकर
नाम, पता, नंबर सब हैं एक-दूसरे के
फिर भी संवादों की कोई गुंजाइश क्यों नहीं
हम एक-दूसरे के साथ सहज क्यों नहीं
ऐ काश! की तुम पुरुष हो जाती
तो मिलाता अपनी पत्नी से तुम्हें!
या हो सकता मैं स्त्री तो बुला लेतीं तुम मुझको
खाने पर अक्सर अपनी सहेलियों की तरह
फिर बेखौफ़ घूमते, फिरते, बातें करते
शक के दायरों से परे
लोगों की नज़रों से परे
और यूं बेदख़ल न हो पाते
इस रिश्ते की हस्ती से
फिर हम भी नवाजे जाते
शायद
दोस्ती से.. दोस्ती से…
– पूर्ति वैभव खरे
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