टूटा हुआ चांद
रात की स्याह चादर में छेद
बेसुध पड़ी धरती
ऊंघते से पेड़
ऐसी ही एक रात में
भागती रही मैं
वीरान सड़कों पर
किसी सुबह की तालाश में
वह सुबह जो हवा को शोख़ी
फूलों को रंग
और पक्षी को स्वर देगी
पर मैं
न तो सिर्फ़ हवा हूं
न सिर्फ़ फूल न पक्षी
और मुझे ज़रूरत है
इन तीनो की
उल्लास, रंग और स्वर
तभी तो मैं भाग रही हूं
निरन्तर
पश्चिम की ओर
मैंने सूरज को
उधर ही जाते देखा था
मेरी मासूमियत पर हैरान तारे
पलकें झपकाते रहे
चांद हंसता रहा वक्र होंठ किए
पर मैं इन सब से बेख़बर,
पीछा करती रही
सूरज का
और सूरज
पीछे आता रहा मेरे
बारी बारी बांटता हुआ
सबको
उनके हिस्से की सौग़ात
छली गई सिर्फ़ मैं
ख़ाली रहे बस मेरे हाथ…
– उषा वधवा
Photo Courtesy: Freepik
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