व्यंग्य- भाग्य, सौभाग्य और दुर्भाग्य…(Satire Story- Bhagya, Saubhagya Aur Durbhagya…)

तोते ने घूर कर देखते हुए कहा, “कोई फ़ायदा नहीं. इसकी फटेहाल जैकेट देखकर मैं इसका भाग्य बता सकता हूं. बेकारी का शिकार है. शनि इसके घर में रजाई ओढ़कर सो गया है. ये किसान आन्दोलन में सपरिवार बैठा है, घर में आटा और नौकरी दोनों ख़त्म है. इसे नक्षत्रों की जलेबी में मत फसाओ उस्ताद.” ज्योतिषी को भी दया आ गई, “जा भाई, तेरी शक्ल से ही लग रहा है कि तेरे पास किडनी के अलावा कुछ बचा नहीं है.

अचानक आज मुझे तुलसीदासजी की एक अर्धाली याद आ गई, ‘सकल पदारथ है जग माहीं करमहीन नर पावत नाही’ (मुझे लगता है, ये कोरोना काल में नौकरी गंवा चुके उन लोगों के बारे में कहा गया है, जो इस सतयुग में भी आत्मनिर्भर नहीं हो पाए) ये जो ‘सकल पदारथ’ है ना, ये किसी भी युग में शरीफ़ और सर्वहारा वर्ग को नहीं मिला. सकल पदारथ पर हर दौर में नेताओं का कब्ज़ा रहा है. इस पर कोई और चोंच मारे, तो नेता की सहिष्णुता ऑउट ऑफ कंट्रोल हो जाती है. अब देखिए ना, सैंतालीस साल से ऊपर तक कांग्रेसी ‘सकल पदारथ ‘ की पंजीरी खाते रहे, मगर मोदीजी को सात साल भी देने को राजी नहीं. बस, यहीं से भाग्य और दुर्भाग्य की एलओसी शुरु होती है. हालात विपरीत हो, तो दिनदहाड़े प्राणी रतौंधी का शिकार होकर दुर्भाग्य का गेट खोल लेता है- आ बैल मुझे मार!
बुज़ुर्गों ने कहा है- भाग्य बड़ा बलवान हो सकता है.. मैंने तो देखा नहीं. हमने तो हमेशा दुर्भाग्य को ही बलवान पाया है. कमबख्त दादा की जवानी में घर में घुसा और पोते के बुढ़ापे तक वहीं जाम में फंसा रहा. जाने कितनी पंचवर्षीय योजनाएं आईं और गईं, मगर सौभाग्य ग्राम प्रधान के घर से आगे बढ़ा ही नहीं. मैंने चालीस साल पहले अपने गावं के राम ग़रीब का घर बगैर दरवाज़े के देखा था. आज भी छत पर छप्पर है, सिर्फ़ टटिया की जगह लकड़ी का किवाड़ से गया है. इकलौती बेटी रज्जो की शादी हो गई है. राम ग़रीब की विधवा और दुर्भाग्य आज भी साथ-साथ रहते हैं. उनकी ज़िंदगी में ना उज्ज्वला योजना आई, ना आवास योजना. अलबत्ता सरकारें कई आईं! सचमुच दुर्भाग्य ही दबंग है. दलित, दुर्बल और असहाय पीड़ित को देखते ही कहता है, हम बने तुम बने इक दूजे के लिए…
भाग्य कभी-कभी लॉटरी खेलता है. ऐसे मौसम में प्राणी माझी से सीधे मुख्यमंत्री हो जाता है. अब प्रदेश के सकल पदारथ उसी के हैं, बाकी सारे करम हीन छाती पीटें. कभी-कभी ठीक विपरीत घटित होता है. सकल पदारथ की पावर ऑफ अटॉर्नी लेकर विकास की जलेबी तल रहा प्राणी मुख्यमंत्री से लुढ़ककर सीधे कमलनाथ हो जाता है. ये सब सकल पदारथ के लिए किया जाता है.
एक बार सकल पदारथ हाथ आ जाए, फिर विधायक या सांसद के हृदय परिवर्तन का मुहूर्त आसान होता है. सकल पदारथ से युक्त सूटकेस देखते ही काम, क्रोध मद, लोभ में नहाई आत्मा सूटकेस में समा जाती है. अगला चरण विकास का है. जिन्होंने बिकने का कर्म किया उन्हें सकल पदारथ मिला. जो करम हीन पार्टी से चिपके रहे, वो विपक्ष और दुर्भाग्य के हत्थे चढ़े. जाकी रही भावना जैसी…
मुझे कहावतें बहुत कन्फ्यूज़ करती हैं. भाग्य, सौभाग्य और दुर्भाग्य के बारे में कहावत है, ‘भाग्य में जो लिखा है वही मिलेगा ‘.. तो फिर पदारथ और करम की भूलभूलैया काहे क्रिएट करते है. भाग्य में सकल पदारथ का पैकेज होगा, तो डिलीवरी आएगी, फिर भला रूकी हुई कृपा के लिए काहे फावड़ा चलाएं. और… अगर क़िस्मत में सौभाग्य है ही नहीं, तो काहे रजाई से बाहर निकलें (पानी माफ़, बिजली हाफ रोज़गार साफ़).
अब अगर करम हीन कहा, तो तुम्हारे दरवाज़े का बल्ब तोड़ दूंगा… ‘कर्मवान’ और ‘कर्महीन’ के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहिए. गीता में साफ़-साफ़ लिखा है- जैसा कर्म करोगे वैसा फल देगा भगवान… इलाके का विधायक अगर तुम्हें आठ-आठ आंसू रुला रहा है, तो इसमें विधायक का क्या दोष. वोट देने का कर्म किया है, तो पांच साल तक फल भुगतो. विकास फंड का सकल पदारथ उसी के हाथ में है. तुम अपने आपको इस काम, क्रोध, मद, लोभ से दूर रखो.
वो ज़माना गया जब सकल पदारथ परिश्रम का नतीज़ा हुआ करता था. अब सुविधा, संपदा और सत्ता का सकल पदारथ अभिजात वर्ग को दे दिया गया है, और मेहनत और मजदूरी करनेवालों को रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पीव… की सात्विक सलाह दी जाती है. धर्माधिकारी की सलाह है कि आम आदमी को तामसी प्रवृत्तिवाले सकल पदारथ के नज़दीक नहीं जाना चाहिए, वरना मरने के बाद स्वर्ग तक जानेवाला हाई वे हाथ नहीं आता. अब आम आदमी धर्म संकट में है. जीते जी सकल पदारथ ले या मरने पर स्वर्ग… (गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय) आख़िरकार संस्कार उसे सत्तू फांक कर स्वर्ग में जाने की सलाह देता है.
देवताओं का कुछ भरोसा नहीं कि कब रूठ जाएं. भाग्य का सौभाग्य में बदलना तो बहुत कठिन है डगर पनघट की, मगर दुर्भाग्य बग़ैर प्रयास बेहद सुगमता से हासिल हो जाता है. जब देखो तब आंगन में महुआ की तरह टपकने लगता है. जिन्होंने साहित्य से गेहूं हासिल करने की ठानी, उसे दुर्भाग्य वन प्लस वन की स्कीम के साथ मिलता है. शादी के सात साल बाद ही मेरी बेगम को साहित्य और साहित्यकार की महानता का ज्ञान हो चुका था. एक दिन उन्होंने मेरे इतिहास पर ही सवाल उठा दिया, “मै वसीयत कर जाऊंगी कि मेरी सात पीढ़ी तक कोई साहित्यकार से शादी ना करे.” लक्ष्मी और सरस्वती के पुश्तैनी विरोध में खामखा लेखक पिसता है. लक्ष्मीजी का वाहक उल्लू उन्हें लेखक की बस्ती से दूर रखता है.
भाग्य और दुर्भाग्य के बीच में सकल पदारथ की चाहत में खड़ा इंसान तोतेवाले ज्योतिषी के पास जाता है. कोरोना की परवाह न करते हुए ज्योतिषि अपने तोते से कहता है, “इस का भाग्यपत्र निकालो वत्स.”
तोते ने घूर कर देखते हुए कहा, “कोई फ़ायदा नहीं. इसकी फटेहाल जैकेट देखकर मैं इसका भाग्य बता सकता हूं. बेकारी का शिकार है. शनि इसके घर में रजाई ओढ़कर सो गया है. ये किसान आन्दोलन में सपरिवार बैठा है, घर में आटा और नौकरी दोनों ख़त्म है. इसे नक्षत्रों की जलेबी में मत फसाओ उस्ताद.” ज्योतिषी को भी दया आ गई, “जा भाई, तेरी शक्ल से ही लग रहा है कि तेरे पास किडनी के अलावा कुछ बचा नहीं है. तोते का पैर छू और फकीरा चल चला चल…”
बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले ना भीख. जाने किस मूर्ख ने ये कहावत गढ़ी थी. मोती को कौन कहे, मिट्टी भी मांगने से नहीं मिलती. रही सकल पदारथ के लिए समुद्र मंथन की बात, तो यहां भाग्य चक्र प्रबल हो जाता है. धर्मभीरू जनता घर का गेहूं बेचकर तीर्थयात्रा पर जा रही है और सेवकनाथजी नौ बैंकों का हरा-हरा सकल पदारथ समेट कर विदेश यात्रा पर. यही विधि का विधान है!
कल मैने अपने मित्र चौधरी से पूछा, “सौभाग्य और दुर्भाग्य को संक्षेप में समझा सकते हो?” चौधरी कहने लगा, “बहुत आसान है. तुम मुझसे उधार दूध ले जाते हो, ये तुम्हारा सौभाग्य है और मेरा दुर्भाग्य…”
जाने क्यों, ये मुझे तुरंत समझ में आ गया.

– सुलतान भारती


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Usha Gupta

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