कहानी- जीत गई ज़िंदगी (Short Story- Jeet Gayi Zindagi)

इस अंतिम अस्पताल में वह यंत्रवत घुसा. निराशा से चारों ओर नज़र दौड़ायी, पर असफल रहा. वापस जाते पैरों को किसी के कराहने की आवाज़ ने रोक लिया. मुड़कर देखा, कोने के बेड पर हाथों में नलियां, वेंटीलेटर लगाए कोई लेटा था. गौर से देखा, वह रिया ही थी… उसे अपनी आंखों और क़िस्मत पर विश्‍वास ही नहीं हो रहा था. वह रिया के माथे पर हाथ फेरने लगा, “रिया… उठो… मैं आ गया हूं… उठो… रिया…” मगर वह बेहोश हो चुकी थी. उसका हाथ अपने हाथों में लिए, उससे माफ़ी मांगता, बातें करता प्रतीक रातभर जागा रहा. इस भयानक बम विस्फोट में रिया के बचने को एक चमत्कार मान ईश्‍वर की ख़ूब मिन्नतें करता रहा.

रिया का मन आज सुबह से ही कच्चा हो रहा था. फटाफट काम निपटाते हाथ प्रतीक की आंखों में अपने लिए चिढ़ और नफ़रत के सम्मिश्रित भाव देख ठिठककर रह गए. कहां चूक गई वह? मल्टीनेशनल कंपनी के हज़ारों लोगों को संभालती सीईओ काफ़ी कोशिशों के बावजूद अपना घर बिखरने से नहीं बचा पाई. मन में दबा दुख और आंसुओं का आवेग आंखों के रास्ते बाहर आना चाहता था. किसी तरह ज़ब्त कर गई रिया. चुप-सी उदास दीवारें और पराए होते अपने के बीच रहना बहुत मुश्किल लग रहा था. आहत् अहम् ने न जाने किन आक्रोश भरे क्षणों में अलग होने का निर्णय ले लिया. उसी की काग़ज़ी खानापूर्ति के लिए दोनों चार बजे वकील के पास आने वाले थे.

घर से निकलते हुए रिया के पैरों में मानो बेड़ियां पड़ गईं. एक लंबी सांस ले पूरे घर को आंखों में समेटते बाहर निकली. मानो अब शायद ही वापसी हो.

वकील के यहां तलाक़नामे पर हस्ताक्षर करते रिया के हाथ एकबारगी कांपे. कनखियों से देखा… प्रतीक का भी यही हाल था. दोनों ख़ामोशी के साथ ही बाहर निकले. चर्चगेट स्टेशन पहुंचते ही प्रतीक ने चुप्पी तोड़ी.

“तुम घर पहुंचो, मैं बाद में आऊंगा.” और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही दरवाज़े से बाहर निकल गया.

‘अब मेरा साथ घर तक भी गवारा नहीं.’ मन रो उठा रिया का. शायद बाहर की मूसलाधार बारिश भी उसका साथ दे रही थी.

लोकल ट्रेन में बैठते ही उसके विचारों की श्रृंखला फिर शुरू हो गयी. कितना प्यार किया करते थे दोनों एक-दूसरे से. प्रेम में आकंठ डूबे रहते. दोनों के परिवार इस शादी के ख़िलाफ़ थे. सारी कठिनाइयां झेलते, आपसी विश्‍वास के सहारे दो वर्ष का लंबा अंतराल गुज़र गया था. बीतते समय ने प्यार की नींव और मज़बूत कर दी थी. लेकिन दोनों के परिवारवालों का दिल फिर भी नहीं पिघला. अब और इंतज़ार न करते हुए दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली. दहलीज़ लांघते ही रिया अय्यर रिया प्रतीक माथुर बन गई. जीवन में ख़ुशियां ही ख़ुशियां थीं. ऑफ़िस से घर लौटने का दोनों को बेसब्री से इंतज़ार होता, लेकिन धीरे-धीरे यह प्यार न जाने कहां खोता चला गया. प्यार की जगह कड़वाहट ने ले ली थी.

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ब्रांद्रा स्टेशन पास आने लगा. विचारों को झटक रिया उठकर दरवाज़े तक आई कि अचानक भयानक आवाज़ से ज़ोरदार बम विस्फोट हुआ. वह कुछ समझ पाती, इससे पहले ही ज़ोरदार धक्के से वह दरवाज़े के बाहर फेंक दी गई. सिर झनझना उठा. चारों ओर ख़ून ही ख़ून, मांस के लोथड़े और चीत्कारें. अर्द्धचेतनावस्था में ही उसने देखा कुछ लोग उसे उठाकर दौड़ रहे हैं. दर्द की एक टीस पूरे शरीर में फैल गई. आंखों के आगे अंधेरा छा गया. शायद बेहोश हो गई थी वह.

प्रतीक थके-थके क़दमों से घर जाने के लिए चर्चगेट पहुंचा. बाहर की दुनिया से बेख़बर अपनी ही धुन में खोया था. स्टेशन पर ख़ूब भीड़ थी. लोग बातें कर रहे थे.

“पिछले ह़फ़्ते तेज़ बारिश ने दम निकाल दिया. उसके बाद भिवंडी में हुआ दंगा दहशत फैला गया. दो दिन पहले शिवसेना की तोड़-फोड़ से डरे लोग संभले भी नहीं थे कि आज 11 जुलाई का ये बम विस्फोट. पता नहीं और क्या-क्या देखना बाकी है.”

बम विस्फोट..? प्रतीक के कान खड़े हो गए. पूछने पर पता चला सात जगहों पर बम विस्फोट हुए हैं और वो भी प्रथम श्रेणी के डिब्बे में. प्रतीक के तो होश उड़ गए. हाथ-पैर कांपने लगे.

“रि…या…” वह ज़ोर से चिल्लाया. सिर पकड़कर नीचे बैठ गया और दहाड़े मारकर रोने लगा. विस्फोट 6.24 को बांद्रा में हुआ था और रिया उसी ट्रेन में थी.

लोगों ने प्रतीक को संभाला और उसे फ़ोन करने की सलाह दी. “हां… हां… फ़ोन करता हूं…” कांपते हाथ न जाने कितनी बार डायल करते रहे, पर फ़ोन नहीं लगा, ना ही मोबाइल और ना ही घर का. लगता भी कैसे, लगभग सभी मुंबईवासी और दूसरे शहरों में रहनेवाले लोग अपने घरवालों और रिश्तेदारों की सलामती जानने के लिए फ़ोन कर रहे थे. इससे सारे नेटवर्क जाम हो गए थे.

काफ़ी रात हो गई थी. प्रतीक जल्द-से-जल्द बांद्रा पहुंचना चाहता था, पर ट्रेनें रद्द हो गई थीं. लोगों का बड़ा-सा हजूम चर्चगेट से भाईंदर और विरार तक पैदल ही भूखा-प्यासा अपने-अपने घरों की ओर भाग रहा था. अनेक शंका-कुशंकाओं के साथ कि कहीं हमारा कोई अपना तो इस विस्फोट में नहीं…? इन भागते पैरों को ताक़त देने के लिए लोग रास्तों में मदद के लिए खड़े थे. स्थानीय निवासी और सेवाभावी संस्थाओं के कार्यकर्ता तो पीने के पानी से लेकर चाय-बिस्किट तक बड़े ही अनुशासित तरी़के से बांट रहे थे, कहीं-कहीं आग्रह के साथ और कहीं मीठी ज़बरदस्ती के साथ. उन अनजान लोगों का प्रेम और अपनापन देख प्रतीक की आंखें बरबस ही गीली हो गईं.

किसी तरह प्रतीक बांद्रा स्टेशन पहुंचा. वहां का दृश्य देखकर उसका दिल दहल गया. मृतकों के शरीर के अवयव जहां-तहां पड़े थे. हाथ कहीं, तो पैर कहीं. सब ओर ख़ून और मांस के चीथड़े. दर्द से चिल्लाते घायल लोगों का बिखरा सामान, ट्रेन की टूटी हुई ख़ून से सनी खिड़कियां, उखड़ी हुई सीटें, विस्फोट की तीव्रता बयान कर रही थीं. आस-पास के लोग घर में डरकर, दुबककर बैठने की बजाय घायल लोगों को जल्द-से-जल्द अस्पताल पहुंचा रहे थे. घर की चादरों और साड़ियों से स्ट्रेचर का काम लिया जा रहा था.

“कहां हो… रिया…” प्रतीक की मानो धड़कनें रुक गई थीं.

“अरे बाबा… यहीं तो हूं… तुम भी ना… ख़ामख़ाह… बेकार शोर मचाते हो.” प्रतीक की जान में जान आई. आंखों में चमक लिए उसने मुड़कर देखा. ओह…. नहीं…. यह तो उसका भ्रम था. ये तो घर के रोज़मर्रा के संवाद थे. प्रतीक पुकारता और रिया ऐसे ही जवाब देती. उसकी प्रोजेक्ट रिपोर्ट के लिए रात-रात भर जागती. उसके साथ विभिन्न संदर्भ ढूंढ़ती, उसका मार्गदर्शन करती रिया उसे याद आने लगी.

काम करते-करते झपकी लगने पर वह सो जाता, परंतु सुबह उसे सारी रिपोर्ट टाइपिंग कर प्रिंटआउट के साथ तैयार मिलतीं. यह रिया का ही कमाल था, जबकि उसे भी सुबह घर के सारे काम निपटाकर ऑफ़िस जाना पड़ता था.

एक दिन उसके बीमार होने पर मना करने के बावजूद रिया अपना प्रेज़ेंटेशन छोड़ सारा दिन उसके सिरहाने बैठी रही, जबकि इस प्रेज़ेन्टेशन के बाद उसे प्रमोशन मिलना तय था. पुरानी बातें याद कर सोच में पड़ गया प्रतीक. ऐसी गुणी, प्रतिभा संपन्न, प्यार करनेवाली पत्नी को वो तलाक़ देने जा रहा था. रिया का पहले खा लेना, उसे खाने के लिए ना पूछना, घर को सलीके से ना रखना या प्रतीक का चीज़ें बेतरतीब रखना, गीला तौलिया बिस्तर पर डाल देना, एक-दूसरे के लिए व़क़्त न होना… ये सब तो इतने बड़े झगड़े की वजह नहीं हो सकती कि तलाक़ ही ले लिया जाए. क्या हमारा ईगो हमारे प्यार से बड़ा हो गया था? और इस प्यार का एहसास होने के लिए क्या इस हादसे का होना ज़रूरी था? यदि वह पहले ही समझ पाता तो शायद रिया को इस तरह ना खोता, धिक्कार है उस पर.

“कहां हो.. रिया…” चलते-चलते थक गया था प्रतीक. एक ओर भय से पागल मन और दूसरी ओर टीवी पर दिखता हाहाकार उसे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल चक्कर काटने पर मजबूर कर रहे थे.

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अस्पतालों की अवस्था तो और भी विकट थी, चारों ओर शोर ही शोर. “हैलो… पचास बेड और भिजवाओ… एम्बुलेंस प्लेटफॉर्म पर भेजो… सर्जन एनस्थेटिस्ट को कॉल करो… साथ ही सांत्वना के शब्द घबराओ मत… सब ठीक होगा… डॉक्टर जी जान से सेवा में लगे थे. डॉक्टरों द्वारा रक्तदान की अपील करने से पहले ही अस्पताल के बाहर लगी लंबी लाइन ने दो घंटों में ही ख़ून का स्टॉक पूरा कर दिया. इस विलक्षण तेज़ी, भावना और अपनेपन ने प्रतीक को हिम्मत बंधायी और रिया के जीवित रहने की आस भी जगायी. उसे लगा पूरी मुंबई सारी रात नहीं सोयी है और उस जैसे अनेक शोकमग्न लोगों के दुःख में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शामिल है.

इस अंतिम अस्पताल में वह यंत्रवत घुसा. निराशा से चारों ओर नज़र दौड़ायी, पर असफल रहा. वापस जाते पैरों को किसी के कराहने की आवाज़ ने रोक लिया. मुड़कर देखा, कोने के बेड पर हाथों में नलियां, वेंटीलेटर लगाए कोई लेटा था. गौर से देखा, वह रिया ही थी… उसे अपनी आंखों और क़िस्मत पर विश्‍वास ही नहीं हो रहा था. वह रिया के माथे पर हाथ फेरने लगा, “रिया… उठो… मैं आ गया हूं… उठो… रिया…” मगर वह बेहोश हो चुकी थी. उसका हाथ अपने हाथों में लिए, उससे माफ़ी मांगता, बातें करता प्रतीक रातभर जागा रहा. इस भयानक बम विस्फोट में रिया के बचने को एक चमत्कार मान ईश्‍वर की ख़ूब मिन्नतें करता रहा.

आज तीन दिन बाद रिया ने आंखें खोलीं. शायद यह प्रतीक का प्यार ही था, जो उसे मौत के मुंह से बचा लाया. वेंटीलेटर हटा दिया गया.

“अब ख़तरा टल गया है.” डॉक्टर बोले.

“थैंक्यू… डॉक्टर… थैंक्यू…” डबडबाई आंखों से प्रतीक डॉक्टर के पैरों पर गिर पड़ा. रिया आश्‍चर्यचकित-सी प्रतीक के उदास आंसू भरे चेहरे, सूनी आंखों और बढ़ी हुई दाढ़ी को देख रही थी. उसका हाथ अपने हाथों में ले प्रतीक बहुत कुछ कह रहा था, पर रिया कुछ भी समझ नहीं पा रही थी.

“विस्फोट की तीव्र आवाज़ से इनकी सुनने की शक्ति चली गई है.” डॉक्टर ने एक और आघात किया.

“घबराने की कोई बात नहीं, लगभग सभी पेशेंट्स की यही समस्या है. एक से तीन महीने में यह समस्या अपने आप ठीक हो जाएगी.” प्रतीक ने चैन की सांस ली.  हाथों में हाथ लिए दोनों बड़ी देर तक रोते रहे, पर ये ख़ुशी के आंसू थे. उनका प्यार ख़त्म थोड़े ही हुआ था, वह तो जमी हुई काई के नीचे ठहरे पानी की तरह था और अब तो यह जमी हुई परत भी हट चुकी थी. ज़िंदगी और मौत के बीच झूलती रिया ने प्रतीक को एहसास दिलाया था कि वह रिया से अब भी बेहद प्यार करता है. साथ ही यह भी कि छोटे-मोटे झगड़े तो हर गृहस्थी में होते रहते हैं, उन्हें ज़्यादा तूल देना ठीक नहीं. प्रतीक के इस प्यार, लगाव और देखभाल को रिया भी महसूस कर रही थी और पछता रही थी. सब कुछ पहले जैसा हो गया था. इस बम विस्फोट से न जाने कितनी ज़िंदगियां उजड़ गईं, मगर एक ज़िंदगी संवर गई.

रिया के मुंह से आश्‍चर्यमिश्रित चीख सुन प्रतीक ने सिर उठाकर सामने देखा. दोनों के परिवारवाले खड़े थे, जो टीवी में इन्हें देख यहां पहुंचे थे. इस भयानक

हादसे ने सारी कड़वाहट मिटा दी थी. सिर पर बंधी पट्टी, दोनों हाथों में जलने के ज़ख़्म और पैर में फ्रैक्चर लिए रिया ने उठने की कोशिश की.

“बस… बस… बहू… जल्दी से ठीक होकर घर आ जाओ.” प्रतीक की मां ने कहा. दोनों ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे. ख़ुशियां फिर लौट आई थीं. हां… ज़िंदगी जीत गई थी.

– डॉ. सुषमा श्रीराव

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