… शास्त्रीजी की चीख सुन उस लड़के ने अपने होंठों से बांसुरी को अलग कर लिया और उनकी तरफ़ देखते हुए बोला, ‘‘मैंने आपका क्या बिगाड़ा है, जो आप रोज़ मुझे डांटने चले आते हैं.’’
‘‘मुझसे ज़ुबान लड़ाता है. अभी बताता हूं कि तूने क्या बिगाड़ा है.’’ शास्त्रीजी अपनी बांहें चढ़ाते हुए उसकी ओर लपके.
‘‘शास्त्रीजी, रूक जाइए. मुझे बात करने दीजिए.’’ प्रधानाध्यापक ने तेज स्वर में शास्त्रीजी को टोका. फिर उस लड़के के क़रीब आ शांत स्वर में बोले, ‘‘बेटा, मैं इस स्कूल का प्रधानाध्यापक हूं. मैं चाहता हूं कि कल से तुम यहां न आओ.’’
यह सुन उस लड़के का चेहरा कांप उठा. उसने अपनी बड़ी-बड़ी आंखों को उठाकर प्रधानाध्यापक की तरफ़ देखा. उसके होंठ कुछ कहने के लिए थरथराए फिर बिना कुछ कहे वो पीछे मुड़ा और तेजी से वहां से चला गया.
‘‘देखा, आपको कैसे घूर रहा था. लग रहा था कि कच्चा ही चबा जाएगा.’’ शास्त्रीजी बड़बड़ाए.
शास्त्रीजी कुछ और कहना चाह रहे थे, किन्तु प्रधानाध्यापक ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया और फिर अपने कार्यालय की ओर लौट पड़े.
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जाने क्यूं उन्हें लग रहा था कि उस लड़के को यहां आने से मना करके उन्होंने अच्छा नहीं किया है. उस लड़के की बड़ी-बड़ी आंखों में पता नहीं क्या था कि वे चाहकर भी उसे नहीं भूल पा रहे थे.
अगले दिन भोजनावकाश से पांच मिनट पहले शास्त्रीजी प्रधानाध्यापक के पास आते हुए बोले, ‘‘देख लीजिएगा, ठीक 11 बजे उसकी बांसुरी फिर बजेगी…”
‘‘मैंने उसे मना कर दिया है. अब वो नहीं आएगा.’’ प्रधानाध्यापक के मुंह से अनायास ही निकल गया.
‘‘मना तो मैंने भी कई बार किया है, परन्तु वह जाने किस मिट्टी का बना है. मानता ही नहीं. रोज़ आ धमकता है.’’ शास्त्रीजी ने मुंह बनाया.
प्रधानाध्यापक ने कोई उत्तर नहीं दिया. बस, एक गहरी सांस भर कर मौन हो गए.
भोजनावकाश हुए काफ़ी देर हो गया था, लेकिन आज बांसुरी की तान नहीं सुनाई पड़ी. शास्त्रीजी का चेहरा प्रसन्नता से खिला जा रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे उस बच्चे को भगाकर उन्होंने बहुत बड़ी सफलता पा ली है.
संजीव जायसवाल ‘संजय’
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