Close

एसिड अटैक्स: कब और कैसे रुकेंगी वारदातें?

...वो ख़ामोशी ओढ़कर एक कोने में दुबक गई है... उसके रिसते दर्द को न जाने कितने कानों ने अनसुना किया... किसी ने सुना भी तो बस चंद लफ़्ज़ों का बोझ डालकर आगे बढ़ गया, फिर कभी भी मुड़कर न देखने के लिए... तुम्हें उससे घृणा क्यों होती है... यह तुम्हारा ही तो चेहरा है... तुम्हारा अपना चेहरा, मेरा भी चेहरा है यह... पूरे समाज का चेहरा यही है... यही असलियत है हमारे सो कॉल्ड सभ्य समाज की, जो इस वीभत्स रूप में सामने आकर खड़ी हो जाती है, हमें तमाचे मारती है... और हम-तुम इससे मुंह फेरना चाहते हैं... महिलाओं पर बढ़ते एसिड अटैक्स किसी भी समाज का स़िर्फ और स़िर्फ विद्रूप चेहरा और विक्षिप्त मानसिकता की ही पहचान बन सकते हैं. यह हमारा दुर्भाग्य है कि भारत में महिलाओं पर बढ़ती हिंसा के मामलों में एसिड अटैक्स भी तेज़ी से बढ़ रहे हैं. ऐसे में बहुत-से सवाल मन में उठते हैं कि सभ्य कहलानेवाले और तेज़ी से एजुकेटेड होते हमारे समाज में ऐसे हमलों के पीछे की मानसिकता क्या है? इसे रोका कैसे जा सकता है? पीड़िता को इंसाफ़ किस तरह से दिया जा सकता है? इन तमाम सवालों के जवाब बेहद मुश्किल हैं, लेकिन एक प्रयास तो किया ही जा सकता है. एक नज़र इन बातों पर - कुछ देशों में महिलाओं पर एसिड अटैक्स की आशंका अन्य देशों के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा रहती है, उनमें से प्रमुख हैं- भारत और बांग्लादेश. - भारत में एसिड अटैक्स में 72% महिलाएं पीड़ित हैं यानी महिलाएं ही इसका शिकार सबसे ज़्यादा होती हैं. - अन्य देशों के मुक़ाबले भारत में इसके मामले लगातार और बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं. - भारत में इन प्रमुख कारणों से एसिड अटैक्स होते हैं- लड़की द्वारा शादी के लिए लड़कों को मना कर देना, सेक्स के लिए मना कर देना और दहेज. - वर्ष 2000 से 2010 के बीच हुए एसिड अटैक्स में से 20% ज़मीन, जायदाद और बिज़नेस संबंधी मतभेदों के कारण हुए. जहां तक एसिड अटैक्स की बात है, तो अब तक कोई ख़ास कठोर क़ानून नहीं हैं. लेकिन निर्भया गैंग रेप के बाद जस्टिस वर्मा ने अपनी रिपोट में सिफ़ारिश की थी कि एसिड अटैक्स के मामलों से निपटने के लिए अलग से क़ानून बनाने की आवश्यकता है. हालांकि इस मामले में जनता की तरफ़ से भी कड़े क़ानून और कठोर सज़ा की मांग उठने लगी है, लेकिन जो पीड़ित है, उसकी तकली़फें और उसके दर्द को कम करने का उपाय किसी के पास भी नहीं, वो अकेले अपने दर्द में जीती है... हर पल, हर घड़ी. - एसिड अटैक्स पर बहुत ज़्यादा सरकारी आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन जो रिपोर्ट्स दर्ज होती हैं, उससे यही बात सामने आती है कि पीड़ितों में अधिकांश युवा महिलाएं व लड़कियां ही होती हैं. जिन्होंने हार नहीं मानी 1 - इस मामले में सबसे बड़ी लड़ाई लड़ी है नई दिल्ली की 24 वर्षीया लक्ष्मी ने. उसने न स़िर्फ कड़े क़ानून की ज़रूरत पर ज़ोर दिया, बल्कि पीड़िता को बेहतर मुआवज़े के लिए भी आवाज़ उठाई. लक्ष्मी ख़ुद एसिड अटैक की शिकार है. सात साल पहले, मात्र 15-16 साल की उम्र में उस पर एसिड से हमला किया गया था, क्योंकि उसने एक लड़के के प्यार के प्रपोज़ल को ‘ना’ कहा था. 7 रिकंस्ट्रक्टिव सर्जरीज़ के बाद भले ही शारीरिक रूप से वो कुछ कमज़ोर हो गई है, लेकिन उसकी मानसिक शक्ति ने ही उसे लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया. उसने सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार के ख़िलाफ़ पेटिशन दायर कर यह सवाल पूछे कि आख़िर एसिड्स, जिनमें से कुछ इंडस्ट्रियल कामों के लिए इस्तेमाल में आती है, इस तरह खुलेआम देशभर में आसानी से उपलब्ध क्यों है? उसने पीड़ित के लिए बेहतर मुआवज़े और मुफ़्त उपचार की मांग भी की. - लक्ष्मी के इस क़ानूनी क़दम का परिणाम यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने लॉ कमीशन को आदेश दिया कि वो एसिड अटैक्स पर रिपोर्ट प्रस्तुत करे. - लॉ कमीशन के अनुसार- एसिड अटैक इस तरह का पूर्वनियोजित हिंसक अपराध है, जिसमें अपराधकर्ता पहले एसिड ख़रीदता है, उसे साथ में लेकर पीड़ित का पीछा करके उस पर एसिड फेंकता है. जान-बूझकर एसिड पीड़ित के चेहरे पर ही फेंकी जाती है, ताकि उसकी ज़िंदगी पूरी तरह से बर्बाद हो जाए. - लॉ कमीशन की रिपोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एसिड की खुलेआम बिक्री पर नियंत्रण का आदेश दिया. और अब एसिड अटैक्स में जेल की सज़ा भी पहले के मुक़ाबले अधिक करने का प्रावधान कर दिया गया है. - लक्ष्मी आज अपने पार्टनर आलोक दीक्षित (पत्रकार और एक्टिविस्ट) के साथ मिलकर StopAcidAttacks (SAA)  के द्वारा एसिड अटैक के पीड़ितों के न्याय की लड़ाई लड़ने और ख़ासतौर से उन्हें सामाजिक न्याय दिलाने में सक्रिय भूमिका निभा रही है. सामाजिक न्याय से तात्पर्य यही है कि यह संस्था एसिड अटैक के पीड़ितों के बारे में पूरी जानकारी लेकर उन्हें फिर से जीने का हौसला देने में मदद करती है. एक तरह से पीड़िता और समाज के बीच यह सेतु का काम करती है. वेबसाइट: www.stopacidattacks.org दुनिया ने किया जज़्बे को सलाम! - StopAcidAttacks के अभियान से जुड़ी लक्ष्मी 2014 की 10 देशों की उन विशिष्ट महिलाओं में हैं, जिन्हें ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट्स इंटरनेशनल वुमन ऑफ करेज अवॉर्ड’ दिया गया. यह अवॉर्ड वॉशिंगटन में मिशेल ओबामा द्वारा दिया गया. यह अवॉर्ड हर वर्ष विश्‍व की उन चुनिंदा महिलाओं को दिया जाता है, जिन्होंने बहुत ही बहादुरी दिखाते हुए शांति, न्याय, मानव अधिकार, समानता और महिला सशक्तिकरण के लिए न स़िर्फ काम किया, बल्कि अपनी जान का जोख़िम लेकर भी काम किया. - जहां तक लक्ष्मी का सवाल है, तो एसिड अटैक के बाद भी उसने सबके सामने आने का हौसला रखा, नेशनल टीवी पर बार-बार आकर अपने जज़्बे से सबको हैरान कर दिया और खुलेआम एसिड की बिक्री पर लगाम कसने के लिए 27,000 लोगों के हस्ताक्षर इकट्ठा करके सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, जिसका असर भी नज़र आया. लक्ष्मी की याचिका के मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को एसिड की बिक्री को नियंत्रित करने के आदेश दिए. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या इतना काफ़ी है? सोशल एक्टिविस्ट की मानें, तो यह क़तई ज़रूरी नहीं कि क़ानून लोगों की मानसिकता को बदल डाले और जो भयानक कृत्य होते हैं या जो इसके शिकार होते हैं उनकी स्थिति, उनका व़क्त और उनकी सामान्य ज़िंदगी वो वापिस कर पाए. - StopAcidAttacks से जुड़े आलोक दीक्षित का कहना है कि क़ानून पहला क़दम हो सकता है महिलाओं की सुरक्षा के मद्देनज़र, लेकिन कड़े क़ानूनों के साथ-साथ सामाजिक बदलाव भी उतना ही ज़रूरी है. भले ही हमें कुछ सफलता मिली है, लेकिन आज भी समाज और प्रशासन पूरी तरह से न तो जागरूक है और न ही गंभीर हुआ है एसिड अटैक्स को लेकर. हम अब भी तेज़ाबी हमलों में देर से न्याय मिलने और सही न्याय मिलने जैसे विषयों पर कोर्ट, सरकार और समाज को पूरी तरह से जागृत नहीं कर पाए हैं. - हमें इस प्रक्रिया को सतत और लाभकारी बनाना है, ताकि न स़िर्फ इस क्रूरतम अपराधों से जूझ रही साथियों को सामान्य ज़िंदगियों में लौटाया जा सके, बल्कि यह भी सुनिश्‍चित किया जा सके कि कोई और लड़की इस तरह के घिनौने अपराध का सामना न करे. - हम तेज़ाब को दुनियाभर की दुकानों, फैक्ट्रियों से नहीं, बल्कि लोगों के मन के भीतर से निकालना चाहते हैं. - वॉशिंगटन कॉलेज ऑफ लॉ के एक लॉ स्टूडेंट पायस आहूजा का, जो एसिड अटैक की पीड़िता शबाना के इंसाफ़ की लड़ाई में शामिल हैं, उनका कहना है कि मात्र क़ानून बना देने से समस्या का समाधान नहीं हो जाता. उसके लिए क़ानून को सही तरी़के से क्रियान्वित करना ज़रूरी है, जो सबके सहयोग से ही होगा. अपराधी के मन में क़ानून और सज़ा का डर होगा, तभी कुछ ठोस हो पाएगा. - पायस ने StopAcidAttacks  के साथ लोगों से शबाना के उपचार और पुनर्वसन के लिए पैसों की मदद के लिए इंटरनेट द्वारा क्राउड फंडिग अकाउंट भी खोला है. उम्मीद है कि अधिक से अधिक लोग मदद के लिए आगे आएंगे. - जहां तक समाज की मानसिकता का सवाल है, तो उसका अंदाज़ा अपने ही पति द्वारा एसिड अटैक की पीड़िता शिरिन जुवैले के अनुभव से लग जाता है. शिरिन ने अपने ब्लॉग में लिखा था कि उन्हें मुंबई के एक कॉलेज के प्रिंसिपल द्वारा प्रवेश से ही मना कर दिया था, ताकि स्टूडेंट्स उनसे डर न जाएं और उन्होंने जो अपनी शादी में भुगता, उनके अनुभव से युवा छात्राएं शादी से डरने न लगें. बहरहाल, इस पूरे मसले पर यही बात सामने आती है कि अगर पढ़े-लिखे, बड़े शहर के एक कॉलेज प्रिंसिपल की ऐसी सोच हो सकती है कि वो बच्चों को जागरूक करने की बजाय पिछड़ी सोच को बढ़ावा देते हैं, तो बाकी लोगों से भी उम्मीद कम ही की जा सकती है. वहीं शिरीन ने एसिड अटैक सरवाइवर्स की सहायता के लिए पलाश फाउंडेशन की स्थापना भी की है. हमले के पीछे की मानसिकता क्या है? इस संदर्भ में हमें अधिक जानकारी दी सायकोथेरेपिस्ट डॉ. चित्रा मुंशी ने... चाहे एसिड अटैक्स हों या किसी भी तरह की हिंसा, इसके पीछे अलग ही तरह की मानसिकता काम करती है. यह एक तरह का पर्सनैलिटी डिसऑर्डर होता है, जिसे एंटी सोशल पर्सनैलिटी कहा जाता है. ऐसे लोगों के मन से हर तरह का डर निकल जाता है. - ऐसा नहीं है कि यह जन्मजात प्रवृत्ति होती है, लेकिन इनके अपने जीवन के कई छोटे-बड़े अनुभव इन्हें ऐसा बना देते हैं. इनका सेल्फ एस्टीम बहुत ही लो होता है और हिंसा के इनके अपने तरी़के भी अलग-अलग होते हैं. - ये सैडिस्ट होते हैं, जो दूसरों को तकलीफ़ में देखकर संतुष्ट होते हैं. इनमें सब्र नहीं होता, जिसे डीले ऑफ ग्रैटिफिकेशन कहते हैं. इन लोगों को हर चीज़ उसी व़क्त चाहिए होती है और न मिलने पर ये हिंसा करने से भी नहीं हिचकते. इन्हें हिंसा से ही संतुष्टि मिलती है. ये दुनिया को कंट्रोल करना चाहते हैं और इन्हें यह एहसास होता है कि हिंसा करने पर लोग उनसे डरेंगे. ये भावनात्मक रूप से काफ़ी कमज़ोर होते हैं. - कहीं न कहीं हमारा सामजिक ढांचा भी इसके लिए ज़िम्मेदार है. जिन घरों में पुरुषों का वर्चस्व होता है, वहां लड़कों को बचपन से ही इसी तरह के संस्कार मिलते हैं कि वो अपनी बहनों और घर की महिलाओं से ख़ुद को श्रेष्ठ समझते हैं. इस तरह उनके मन में महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव पैदा नहीं होता और आगे चलकर इनका महिलाओं के प्रति यही नज़रिया होता है कि इन्हें हमारी हर बात माननी ही चाहिए, हमारा इन पर प्रभुत्व है और ऐसे में जब वे उनकी कोई बात नहीं मानतीं, तो उनके अहं को ठेस लगती है और उनसे यह बर्दाश्त नहीं होता. यही अहं उन्हें फिर इस तरह के क़दम उठाने के लिए उकसाता है. उपाय क्या है? इस तरह के लोगों के इलाज की सफलता का प्रतिशत बेहद कम है, क्योंकि इन्हें यह लगता ही नहीं कि ये ग़लत हैं और इन्हें इलाज की ज़रूरत है. दूसरी तरफ़ घर-परिवार और समाज में बदलाव ज़रूर आया है, लेकिन अभी भी लड़के-लड़कियों की परवरिश अलग-अलग तरह से ही की जाती है. अभी भी सदियां लगेंगी बराबरी का दर्जा मिलने में. तब तक इस तरह की अमानवीय घटनाओं से बचने के उपाय हमें अपने-अपने स्तरों पर खोजने होंगे, क्योंकि भले ही क़ानून थोड़ा सख़्त हुआ हो, लेकिन सच्चाई यही है कि आज भी बाज़ार में खुलेआम धड़ल्ले से एसिड बिक रही है.

- गीता शर्मा

Share this article

https://www.perkemi.org/ Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Situs Slot Resmi https://htp.ac.id/ Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor https://pertanian.hsu.go.id/vendor/ https://onlineradio.jatengprov.go.id/media/ slot 777 Gacor https://www.opdagverden.dk/ https://perpustakaan.unhasa.ac.id/info/ https://perpustakaan.unhasa.ac.id/vendor/ https://www.unhasa.ac.id/demoslt/ https://mariposa.tw/ https://archvizone.com/