मेरी पलकों पर कुछ बूंदें टिकी हैं
क्या गुज़रे हुए लम्हों से गुज़र रहा हूं
कहीं ऐसा तो नहीं अपनी ज़िंदगी में
ख़ुद के भीतर दर्द से गुज़र रहा हूं
जाने दो कभी कभी
ख़ुशी के आंसू भी तो छलकते हैं
यकीनन बूंदें पलकों पे टिकी हैं
तो कुछ कहने उतरी हैं
दिल से बाहर आ कर
मेरे चेहरे से गुज़रते हुए
बहुत देर तो नहीं रुकेगी
कितनी भी कोशिश कर लूं
पानी बन गालों पे ढुलक जाएंगी
अभी ऐसा नहीं हुआ कि
आंसुओं के स्वाद
ख़ुशी के लिए मीठे हो गए हों
कैसे पता करूं कि
मेरे दिल के बाहर
ये बूंदें क्यों उतर आई हैं
बस कुछ नहीं
ये कुछ बोलती नहीं हैं
इनकी आदत है जब दिल पर
कोई बोझ बढ़ जाता है
तो ख़ुद ब ख़ुद उसे हल्का करने
ये बाहर छलक आती हैं
कौन है ये बूंदें जिन्हें देखने वाले
आंसू कहते हैं और इंसान के दिलों के
हालात पढ़ लेते हैं मगर नहीं
जब इंसान अकेला होता है
तो उसके आंसू किसी को नहीं दिखते
ऐसा भी नहीं कि तमाम भीड़
किसी के आंसू देख ले
वह कोई अपना होता है जो दिल से गुज़र कर
चेहरे पर उतरे आंसुओं की
इबारत पढ़ बता देता है
यह ख़ुशी के आंसू हैं या दर्द के
कोई अपना होता है जो जानता है
इन आंसुओं की क़ीमत
हो सके तो ढूंढ़ लेना उन्हें
जो समेट लें तुम्हारे आंसू बिना कुछ कहे
चुपचाप अपने दामन में
क्योंकि हर इंसान
नहीं जानता नहीं पहचानता
तुम्हारे सुख दुख और दर्द को…
– मुरली मनोहर श्रीवास्तव
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