कहानी अपना लेखक ख़ुद खोज लेती है
जब उतरना होता है उस भागीरथी को पन्नों पर
सुनानी होती है आपबीती इस जग को
तो खोज में निकलती है अपने भागीरथ के
और सौंप देती है स्वयं को एक सुपात्र को
लेखक इतराता है, वाह मैंने क्या सोचा! क्या लिखा! कमाल हूं मैं!
कहानी को गौण कर, मद से भरा वो मन पहाड़ चढ़ता है श्रेय के
और दूर खड़ी कहानी हंसती है एक मां की तरह, उसके भोलेपन पर
भूल जाता है वो तो निमित मात्र था, कहानी की दया का पात्र था…
कहानी कृतज्ञता की अपेक्षा किए बिना लेखक का भोला मन बहलाती है
और उसे भ्रमित छोड़.. पन्नों पर, किताबों में, ध्वनियों पर आरूढ़ हो इतराती है…
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