समीक्षाः एक के बाद एक कई फ्लॉप फिल्मों के बाद सिद्धार्थ मल्होत्रा के लिए एक हिट फिल्म ज़रूरी थी और तारा सुतारिया को डेब्यू के बाद आए गैप के बाद एक उछाल चाहिए था, लेकिन मरजावां देखने के बाद ऐसा मुमकिन नहीं लग रहा है. ऐसा चमत्कार होना मुश्किल है. इस फिल्म में सिद्धार्थ मल्होत्रा को धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन दोनों ही बनाने की कोशिश की गई है और तारा सुतारिया 80 के दशक की हीरोइन बनी हैं. बाकि की कहानी वैसी ही है. घिसी पिटी हुई. नोरा फतेही रिमिक्स गाने पर नाचती हुई नज़र आएंगी और आप बोर होकर चाय-कॉफी पीने के लिए बाहर जाएंगे और जब आप वापस आएंगे तो कहानी वहीं की वहीं रहेगी. रकुलप्रीत सिंह जैसी टैलेंटेड एक्ट्रेस में अपनी प्रतिभा वेस्ट की है. जैसा हमने पहले बताया कि लेखक-निर्देशक मिलाप जवेरी ने प्यार-मोहब्बत, बदला, कुर्बानी, जैसे तमाम इमोशंस के साथ जो कहानी बुनी, उसे हम पहले भी देख चुके हैं. फिल्म में, 'मैं मारूंगा डर जाएगा, दोबारा जन्म लेने से मर जाएगा', 'जुम्मे की रात है, बदले की बात है, अल्लाह बचाए तुझे मेरे वार से' जैसे भारी-भरकम संवाद ओवर द टॉप लगते हैं. कहानी में जितने भी जज्बाती ट्रैक्स हैं, उसमें मेलोड्रामा कूट-कूट कर भरा है. मिलाप जावेरी को फिल्म की कहानी लिखने से पहले 70 व 80 के दशक की कुछ अच्छी फिल्में देख लेनी चाहिए थीं, शायद वे कहानी के साथ थोड़ा न्याय कर पाते.
एक्टिंगः अभिनय की बात करें तो सिद्धार्थ में एक चार्म है. उन्हें जिस दिन सही फिल्म मिल गई बस सुपरस्टार ही साबित होंगे. नासर अन्ना के किरदार में कमाल करते हैं. रितेश देशमुख मैं इस किरदार पर काफी मेहनत की है जो साफ नजर आती है. तारा सुतारिया को खूबसूरत दिखने के अलावा और कोई काम नहीं दिया गया. वहीं रकुल प्रीत का किरदार उभर कर सामने नहीं आता है. यहां गलती सिद्धार्थ या तारा की नहीं है, बल्कि मिलाप जवेरी की है, जो उनके करियर के लिए खतरनाक साबित हो सकती है.
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