आज के हालातों में
हर कोई ‘बचा’ रहा है कुछ न कुछ
पर, नहीं सोचा जा रहा है
‘प्रेम’ के लिए
कहीं भी..
हां, शायद
‘उस प्रलय’ में भी
नाव में ही बचा रह गया था ‘कुछ’
कुछ संस्कृति..
कुछ सभ्यताएं..
और
.. थोड़ा सा आदमी!
प्रेम तब भी नहीं था
आज भी नहीं है
.. वही ‘छूटता’ है हर बार
हर प्रलय में
पता नहीं क्यों…
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