पहला अफेयर: धुंध के पार (Pahla Affair: Dhundh Ke Paar) किशोरवय की सुनहरी धूप से भरे वे प्रिय दिन कितने सुहाने थे. मेरे चारों ओर…
किशोरवय की सुनहरी धूप से भरे वे प्रिय दिन कितने सुहाने थे. मेरे चारों ओर बुद्धि प्रदीप्त सौंदर्य का एहसास पसरा हुआ था. इसी आत्मविश्वास के कारण मैं तनिक एकाकी हो गई थी. घर से दूर हॉस्टल में रहते हुए भी मैंने कभी भी स्वछंदता का लाभ नहीं उठाया था.
गीत-संगीत का शौक ही मेरे अकेलेपन का साथी था. मेरा शुरू से ही यह मानना था कि संगीत में जो कशिश है, वो न स़िर्फ तन्हाई को, बल्कि हर मुश्किल को दूर कर सकती है. संगीत से यह गहरा लगाव ही मुझे बेहद ख़ुश रखता था.
उन्हीं दिनों हमारी कक्षा पिकनिक पर गई. हरी-भरी पहाड़ियां, कल-कल बहता स्वच्छ झरना व पास ही दरी बिछा हम छात्र-छात्राएं संकोच से बतिया रहे थे. साथ में लाए टेप-रिकॉर्डर पर मधुर, पुराने फिल्मी गीत बज रहे थे. तभी किसी ने प्लेयर बंद कर दिया. एक सहपाठी के विषय में कहा गया कि वह बहुत अच्छा गाता है एवं क्यों न उससे ही कुछ सुना जाए.
“तेरी आंख के आंसू पी जाऊं…” यह गीत गाते हुए वह गौरवर्ण, सुदर्शन सहपाठी मेरी ओर ही क्यों देखे जा रहा था, यह मैं तब समझ नहीं पाई.
उस दिन के बाद हमारी मित्रता हुई, जो धीरे-धीरे असीम सुकोमल भावनाओं की डोर से हमें बांध गई. पहले प्यार ने हम दोनों को कुछ ऐसा छुआ कि कब साथ जीने-मरने का इरादा कर लिया, पता ही नहीं चला.
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मुहब्बत की इन भावनाओं के बीच हमारी पढ़ाई भी चल रही थी. एमबीबीएस के बाद मेरे उस सुख-दुख के सखा को सुदूर नगर स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए जाना पड़ा.
वियोग के पल कितने निर्मम थे और कितने कठिन भी. तीन वर्ष पत्रों का आदान-प्रदान रहा. फिर समय की धुंध हमारे रिश्ते के बीच छा गई. धीरे-धीरे पत्रों का सिलसिला कम हुआ और फिर बंद ही हो गया. शायद माता-पिता की आज्ञानुसार वह विदेश चला गया.
बचपन से ही शरतचंद, टैगोर पढ़-पढ़कर पली-बढ़ी मैं उस प्रसंग को विस्मृत न कर सकी. सुगंधित पत्रों व जीवंत स्मृतियों का पिटारा अब भी पास था. शायद एक आस थी कि मेरे पहले प्यार की उन सुखद अनुभूतियों का एहसास उसे भी होगा और कहीं न कहीं उसके मन में भी वो तड़प, वो कशिश तो ज़िंदा होगी ही. नहीं जानती थी कि ये मेरा भ्रम था या हक़ीक़त… पर मैं बस उसकी यादों से बाहर नहीं निकलना चाह रही थी.
और आज… उस धुंध के आर-पार, समय की निष्ठुरता को ठुकराती, एक स्नेहिल आवाज़, टेलीफोन के माध्यम से फिर खनक उठी है,
“मैं सदैव के लिए तुम्हारे पास आ रहा हूं. मेरे मार्ग को अपने ख़ुशी के आंसुओं से सींचे रखना. मुझे पता है कि तुम ख़ुशी में भी ज़ार-ज़ार रोती हो.”
मुझसे पूछे बिना ही उसने जान लिया था कि मेरे नैनों में आज भी उसकी प्रतीक्षा के दीये जल रहे हैं. मेरा इंतज़ार, मेरा प्यार जीत गया था.
मेरी आस ग़लत नहीं थी… मेरी आंखों से सच में आंसू बहे जा रहे थे… पर ये ख़ुशी के आंसू थे, जिनमें ग़मों के सारे पल, जुदाई की सारी रातें और हिज्र के दिनों की सारी शिकायतें धुल गई थीं. अब हमारे दरमियान स़िर्फ प्यार था… बस प्यार ही प्यार…
ख़त्म हो गया था वो इंतज़ार!
– डॉ. महिमा श्रीवास्तव
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