कविता- सुबह होते ही बंट जाता हूं मैं… (Poetry- Subah Hote Hi Bant Jata Hun Main…)

सुबह होते ही
बंट जाता हूं
ढेर सारे हिस्सों में
नैतिकता का हिस्सा
सर्वाधिक तंग करता है मुझे
जो मेरी सोच पर
सबसे बड़े बंधन सा उभरता है,
जो पूरे जीवन को
सदियों से चले आ रहे
सेट पैटर्न पर चलने को बाध्य करता है
मुझे लगता है
ऐसा करते हुए
मैं हिप्पोक्रेट हो जाऊंगा
मुझसे पूर्ववर्ती लोग
ऐसे हुए कि नहीं कह नहीं सकता
मेरा चिंतन
जीवन के इस मोड़ पर
कुछ मांगता ही नहीं
नाम शोहरत दौलत सुख शांति
कुछ भी नहीं
सिर्फ़ तुम्हें मांगना नहीं छोड़ पाता
जो मुझे
ढेर सारे हिस्सों में बांट देता है
एक तरफ़ तुम्हें मांगता मैं
और दूसरी तरफ़
सब कुछ की मांग छोड़ चुकी ज़िंदगी
यही तो हिप्पोक्रेसी है
तुम्हें मांगते ही
तमन्ना की सीरीज़ पैदा होती है जो
एक एक कर उम्र की दहलीज़ पर
लांघ चुके लम्हों की मांग करती है
और मैं नैतिक बनाम अनैतिक हो जाने के
बंटवारे में उलझ जाता हूं
नैतिक होते ही
जीवन समाप्ति की ओर बढ़ जाता है
जबकि वैचारिक अनैतिकता
मुझे उम्र की दहलीज़ पर
पीछे ले जाती है और मैं
एक बार फिर नई ज़िंदगी जी उठता हूं
‘हिप्पोक्रेसी’
स्वीकार कर लूं
या सत्य स्वीकार कर
उम्र बढ़ा लूं
मैं सुबह होते ही
बंट जाता हूं
ढेर सारे हिस्सों में
मैं ताउम्र सत्य के साथ जीता रहा हूं
अब हिप्पोक्रेट नहीं होना चाहता
इसलिए बंट जाता हूं
सुबह होते ही
ढेर सारे हिस्सों में…

मुरली

यह भी पढ़े: Shayeri

Photo Courtesy: Freepik

Usha Gupta

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Usha Gupta

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